भूख(लघु कथा)
आखिरी बस जा चुकी।सन्नाटा पसर चला।उसे चूल्हे की आग बुझती-सी लगी,पर यूँ ही बैठी रही।अचानक उसका ध्यान भंग हुआ,
--बस छूट गयी क्या?
दूकान बंद करते पानवाले ने पूछा।
-नहीं,बस यूँ ही---उसने मुड़कर पीछे देखा।पानवाला उसे अंदर तक घूरता-सा लगा।
--अब कोई नहीं आयेगा,चल न मेरे यहाँ आज।
--नहीं,घर में बच्चे भूखे होंगे,और फिर तेरी घरवाली.........?
-मैके चली गयी है।बगल के बटोही के साथ धर लिया था उसे एक दिन।
फिर नजरें मिलीं।लगा रोशनी फैलने लगी, अब चूल्हे जल जायेंगे।उसने अपना आँचल सहेजा।दोनों अँधेरे में गुम हो गये।
'मौलिक व अप्रकाशित'
Comment
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आप रचनाकर्म के मर्म को, भाईजी, समझना चाहते हैं तो समझें और सीखें कोई उज़्र नहीं है. लेकिन यह भी मान कर चलिये कि यह साहित्यिक मंच होने के साथ-साथ एक पारिवारिक एवं सर्वसमाही मंच है और हर उम्र और समझ के रचनाकार सीखते-समझते हैं. साहित्य और सामाजिक-पारिस्थिक दशा के अंतर्गत एक सीमा तक हर तरह के मनोवैज्ञानिक व्यवहार को शाब्दिक करना अनुमन्य है. इसके आगे बहुत कुछ देखना अनिवार्य हो जाता है. इसे कोई (आप भी) व्यक्तिगत आग्रह न समझ कर मंच के वातावरण की आवश्यकता समझें.
विश्वास है, मेरे कहे के प्रति संवेदनशील मंथन करेंगे. ऐसी ’फ्लैशी’ टिप्पनियाँ हमने इन पाँच वर्षों में सैकड़ों की संख्या में.. खूब.. देखी हैं और बेहतर ढंग से इग्नोर किया है.
सादर
किसकी कैद ?
जब कायदे से प्रस्तुतियाँ आने लगे तो टिप्पणियों पर हवाबाज़ी अच्छी लगती है..
भूख की बेबसी में उठे कदम को कोई और क्या शब्द दे ? वैेसे इतनी बार इतने अच्छे ढंग से इन्हीं परिस्थितियों को ’पढ़’ चुका हूँ कि इसके अलावा किसी शीर्षक और कथ्य पर अभ्यासरत होते देखना अच्छा लगता. यों भी अनावश्यक एडल्ट कथ्य बहुत आकर्षित नहीं करता.
धन्यवाद ..
मजबूरी को अभिव्यक्त करती प्रभावकारी और सफल लघुकथा
हार्दिक बधाई आदरणीय मनन जी
आभार गिरिराज भाई।
हाय री इंसान की मज़बूरियाँ !! बहुत सुन्दर , लघुकथा के लिये बधाई ।
आदरणीय हरि भाई, मुकेश भाई,विनय भाई एवं वीरेंद्र भाई, आप सबने लघु को मान दिया इसके लिए आप सबका ढेर -सा आभार।
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