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कागज के ख़त...........'जान' गोरखपुरी

२२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२

 

मुद्दत से जिसने दुनिया वालों से मेरा नाम छुपा रक्खा है

जलने वालों ने ज़माने में उसका ही नाम बेवफा रक्खा है

 

**

 

रातों-रातों उठ उठ कर हमने आँसू बोयें हैं दिल की जमीं पर  

तुम क्या जानोंगे कैसे हमने बाग़-ए-इश्क ये हरा रक्खा है

 

**

 

वो मेहरबां है तो कुछ और न सुना दे,गर हो जाय खफा तो   

चूड़ी ,कंगन, पायल, बादल..कासिद कायनात को बना रक्खा है  

 

**

 

बात कलम और कासिद की क्या जाने ये ईमेल जमाने वाले

आँसू, बोसे, खुशबू, जादू कागज के ख़त में क्या क्या रक्खा है

 

**

 

इक ना इक दिन तो मिलके ही रहूँगा ‘‘जान’’ उस जादूगर से मैं  

जिसने टांकें हैं फलक पे सितारे,जिसने चाँद का दिया रक्खा है

 

 

 ************************************************** 

         मौलिक व् अप्रकाशित (c) जान गोरखपुरी

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 17, 2015 at 8:41pm

आ० विजय निकोर सर गजल पर हौसलाफजाई के लिए बहुत बहुत आभार!सादर!

Comment by vijay nikore on June 16, 2015 at 6:23pm

बहुत ही दिलकश, खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई, आदरणीय कृष्णा जी।

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 12, 2015 at 10:57am

आ० गिरिराज सर!आपके मार्गदर्शन का इन्तजार था,हृदय से आभारी हूँ...मुझे भी कुछ जगहों पर गेयता में दिक्क़त दिख रही है,बहुत प्रयास किया था इसे कम करने का पर सफल नही हो सका,गेयता का सुधार भविष्य के लिए छोड़ रक्खा है,मुझे पूर्ण विश्वास है कि गाते-गुनगुनाते शब्दसंयोजन धीरे धीरे भविष्य में ठीक होता जायेगा!!सादर!!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 12, 2015 at 10:50am

आ० आशुतोष सर गज़ल पर आपकी उपस्थिति पाकर मन हर्षित हुआ,आपकी हौसलाफजाई से लेखनी को नवीन उर्जा मिली है!आ० बहुत बहुत शुक्रिया!आभार!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 12, 2015 at 10:45am

एक विवाह समारोह में शिरकत के लिए बाहर गया हुआ था इस कारण से समय पर प्रतिउत्तर नही दे सका,इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 8, 2015 at 6:09pm

आदरनीय कृष्णा भाई , गज़ल खूब कही है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें । बस गेयता मे कुछ कमी लगी है , शब्द विन्यास को देखें तो  वो कमी भी दूर हो जायेगी ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 8, 2015 at 5:17pm

प्रिय कृष्णा जी ..इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए आपको ढेर सारी बधाई सादर 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 6, 2015 at 9:59pm
आ० vijai shanker सर!आपकी उपस्थिति का इन्जार रहता है!हौसलाफजाई के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय!सादर!
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 6, 2015 at 9:23pm
आ० समर सर!आप जैसे गजलगो से गजल पर मान मिलना अपने आप में अलग अहमियत रखता है!आ० स्नेह बनाये रक्खें! हार्दिक आभार!
Comment by Dr. Vijai Shanker on June 6, 2015 at 10:22am

बात कलम और कासिद की क्या जाने ये ईमेल जमाने वाले
आँसू, बोसे, खुशबू, जादू कागज के ख़त में क्या क्या रक्खा है
बहुत खूब, प्रिय कृष मिश्रा जी , बधाई, सादर.

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