जीवन के जिस राग का अनुभव में था ताप l
बिन उसके जीवन वृथा, धन-वैभव या शाप ll
भय वश मैं झिझका रहा प्रेम न फटका पास l
गहरी नदिया पास थी अमिट और भी प्यास ll
मैं क्या जानूं उसे जो, छिप कर करता वार l
जीवन-रस अमृत सही, छलक रहा हो सार ll
कुछ तो फूटा है यहाँ, फैला है अनुराग l
बिन बदली भीगा बदन, ठंढी-ठंढी आग ll
यह सुगंध अनुराग की बढ़ा रही है चाह l
कैसे पहुचूँ आप तक दिखे न कोई राह ll
बस इतना ही जानता, मैं हूँ पूर्ण अपूर्ण l
बिन मेरे तेरी मगर नहीं पूर्णता पूर्ण ll
डॉ बृजेश कुमार त्रिपाठी
Comment
भाई गणेश जी
सादर वंदन
क्षमा चाहता हूँ ..हूँ तो आप के करीब ही लेकिन कुछ तो व्यस्तता रही नौकरी की और कुछ लिखने का उपयुक्त भाव ही नहीं बन पाया ...कई बार साईट पर बैठा लेकिन किसी अनपढ़ की तरह ...समझ ही नहीं पा रहा था क्या हो गया है ...कभी कभी आप लोगों का साहित्य सृजन मन में प्रेरणा उत्पन्न करता था लेकिन अल्प काल के लिए....दिसम्बर १५ में सेवा निवृत्त हो रहा हूँ ..आशा है फिर नियम से सत्संग होगा l
आदरणीय डॉ साहब, आप द्वारा प्रस्तुत दोहे अच्छे हैं, एक दो जगह कुछ कमी है जिसपर आदरणीय गोपाल नारायण जी बहुमूल्य सुझाव दिए हैं ...लेकिन इन सबसे पहले ...........आप हैं कहाँ आदरणीय ?
आदरणीय ब्रिजेश कुमार त्रिपाठीजी, आपको एक अरसे बाद इस मंच पर पुनः देखना अतीव प्रसन्नता का कारण हुआ है.
सहभागिता के लिए हार्दिक धन्यवाद. आदरणीय गोपाल नारायनजी के कहे का संज्ञान लें.
सादर
बस इतना ही जानता, मैं हूँ पूर्ण अपूर्ण l
बिन मेरे तेरी मगर नहीं पूर्णता पूर्ण!! बहुत खूब सुन्दर रचना
आ ० बृजेश जी
बहुत सुन्दर दोहे रचे आपने . बस एक जगह चूक हुयी ----------मैं क्या जानूं उसे जो -----इस विषम चरण के अंत में यगण क्यों ? सगठन 4+4+३+2 तो सही है पर सनियम यहाँ त्रिकल १२ नहीं २१ ही मान्य है i वर्तनी में ठंडी-ठंडी को ठंढी- ठंढी कर लें तथा धिखें को दिखे ' सादर .
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