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मुक्ति (लघुकथा)/रवि प्रभाकर

‘आज तो लाला ने भी और मोहलत देने से साफ मना कर दिया । समझ नहीं आ रहा अब क्या होगा? बैंक की किश्तें, अगले महीने छोटी की शादी... इस बेमौसमी बरसात ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा ।’ साहूकार की दुकान से बाहर निकलते हुए परेशानी के आलम में वो अपने साथी से बोला
‘सब्र से काम लो भाई ! अब जो भगवान को मंजूर ... अरे ! उधर क्या करने जा रहे हो ... उस तरफ तो बाजार है ?’
‘एक रस्सी लेने...।’

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by savitamishra on May 14, 2015 at 10:46pm

रस्सी ही रह गयी हैं अब बेचारो की किस्मत में ...सादर नमस्ते भैया ...बढ़िया कथा

Comment by Ravi Prabhakar on May 14, 2015 at 6:00pm

लघुकथा को अपना अमूल्‍य समय देने हेतु आदरणीय जितेन्‍द्र भाई, आदरणीय श्‍याम नारायण वर्मा, आदरणीय माला झा, आदरणीय चंद्रेश भाई, आदरणीय विनय भाई, आदरणीय अमन कुमार जी, आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, आदरणीय डॉ आशुतोष जी, आदरणीय कृष्‍ण मिश्रा जी, आदरणीय विजय निकोर जी का बहुत बहुत धन्‍यवाद । आदरणीय अमन कुमार जी साहूकार (आढ़तीयों) की गद्दियां प्राय अनाज मंडियों में हुआ करती हैं और आम जरूरत की चीजों लिए दुकानें अलग बाजार में होती है । सादर ।

Comment by vijay nikore on May 14, 2015 at 4:39pm

अच्छी लघुकथा के लिए बधाई।

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 14, 2015 at 3:22pm

संवेदनशील विषय पर बेहतरीन लघुकथा! हार्दिक बधाई आ० प्रभाकर सर!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 14, 2015 at 6:07am

आदरणीय रवि जी .मजबूर आदमी और क्या करे,,दिल को छू लेने वाली रचना ..लेकिन ऐसी परिस्थित में आदमी को हौसले से काम लेना चाहिए ..यह कदम लोग उठा लेते हैं लेकिन ये गलत है ,,,इस रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on May 13, 2015 at 9:56pm
बहुत ही प्रभावकारी लघुकथा।
आदरणीय रवि जी इस उत्कृष्ट प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई।
आदरणीय अमन जी के विचार से मैं भी सहमत हूँ। सादर।
Comment by विनय कुमार on May 13, 2015 at 6:50pm

बहुत मार्मिक , मौजूं और बेहतरीन लघुकथा | बधाई आदरणीय.

Comment by aman kumar on May 13, 2015 at 3:54pm

साहूकार की दुकान बाजार मे नही थी क्या ? 

कथा का सार अच्छा है ,,,,

Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on May 13, 2015 at 2:47pm

जब  किये गए कर्म का  उचित फल नहीं मिलता, तो नकरात्मक उर्जा कर्म के अनुसार विपरीत और बराबर उत्पन्न  हो ही जाती है| फिर व्यक्ति उसके अनुसार कुछ न कुछ गलत कर ही बैठता है| इतने बड़े सिद्धांत को कुछ पंक्तियों में सहज ही समझा दिया आपने आदरणीय रवि प्रभाकर जी सर| नमन आपको| 

Comment by Mala Jha on May 13, 2015 at 1:32pm
बेहद संवेदनशील विषय पर लिखी सुन्दर लघुकथा।

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