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हो चुकी हो तुम एक पाषाण

वो एहसासों की लहरों पे तैरना

धड़कनों को खामोशीओं में सुनना

होठों को छू लेने की तड़प

आगोश में भर लेने की चसक

सब रेत के घरोंदे थे .........

रेत के इन घरोंदों को

तूफ़ान से पहले क्यूँ खुद ही ढाना पड़ता है !

चादर में ग़मों की फटन को

वक़्त के धागे से क्यूँ ख़ुद ही सीना पड़ता है !

नींद के आगोश में

मरे हुए ख़वाबों को क्यूँ खुद ही ढोना पड़ता है !

उमंगों के उड़ते परिंदों को

दर्द के दरिया में क्यूँ ख़ुद ही डुबोना पड़ता है !

पाषाण नहीं पिघलते कभी ......

बार बार ये बात ख़ुद को समझाना पड़ता है !!

******************************************************

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 23, 2015 at 10:08pm

भाव प्रधान रचना लगी किन्तु शिल्प स्तर पर प्रस्तुति साधारण लगी, बधाई इस प्रस्तुति पर आदरणीय मोहन सेठी जी.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 23, 2015 at 8:44pm

फिर भी जीवन तो जीवन है

अपने और अपनों के लिए जीना पड़ता है... बधाई स्वीकारें ,आदरणीय मोहन जी

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