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सम्मान : लघुकथा

"कुछ सिखाओं अपनी माँ को | शहर में रहते पच्चीसों साल हो गये पर रही गंवार की गंवार |"
" बड़े साहब कितनी बार कहें बैठ जाओ पर ये बैठी नहीं |"
"कइसे बैठती जी, वो 'पैताने' बैठने को कहत रहा | "...सविता मिश्रा

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by savitamishra on April 16, 2015 at 5:34pm

आदरणीय गोपाल चाचाजी आप का कहना बिल्कुल वाजिब हैं | और हम बखूबी समझ रहें हैं चाचाजी | पर बुजुर्ग का मान रखने के चक्कर में युवा साहब ने बैठने को कहा , पर गाँव के परिवेश से आई बुजुर्ग महिला को गंवारा न हुआ बैठना |.....सादर नमस्ते |

अब यदि इस कथा को बदलना भी किसी तरह चाहे तो बदलने से फिर ख़त्म हो जायेगी | कुछ नई गढ़नी पड़ेगी फिर तो | ..यदि सुझाव आप दें सकें तो हमें ख़ुशी होंगी |...हम बदलने में अक्षम हैं इसे |

जहाँ तक हमारा विचार है यदि चारपाई या तख़्त पर कोई अधलेटा सा भी है तो चाहे कुर्सी भी आफर की जाए पैर की तरफ लोग बैठना गंवारा नहीं करते |

Comment by savitamishra on April 16, 2015 at 5:24pm

कई जनों से सुनें हैं जिसके द्वारा बोला जाय वैसे ही भाषा लिखने की कोशिश होनी चाहिए ..वैसे ना जाने क्यों हम इत्तेफ़ाक नहीं रखते ...पर हो सकता है सब अपनी ही भाषा में कहने पर वह और भी नियमों से हट जाये ..वैसे भी हमारी कथा नियमों के विरुद्ध हो जाती हैं
आदरणीय डाक्टर विजय भैया सादर नमस्ते ...
पैताने बैठने को कहा जिससे गाँव की परिवेश में रहने वाली बुजुर्ग महिला को जचा नहीं | अतः नहीं बैठीं..सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 16, 2015 at 12:10pm

आ० सविता जी

आ० राजेश कुमारी जी का कथन अपने स्थान पढ़ाई और मेरा सन्दर्भ दूसरा है . माँ जी किसी घरवाले के साथ बैठने नहीं जा रही हैं . वह साहब  के पास बैठने हेतु प्रस्तावित है . साहब एक महिला को कुर्सी आफर करे  यह तो ठीक है  पर वह र्पैताने या सिरहाने बैठने को कहे यह बात गले से नहीं उतरती  i साहेब के बिस्तर पर माँ  के बैठने  का क्या औचित्य है . सम्भवतः मेरा मंतव्य  आप  समझ गयी होंगी . सादर .

Comment by Shyam Narain Verma on April 16, 2015 at 11:09am

इस अच्छी लघु कथा के लिए बधाई

Comment by aman kumar on April 16, 2015 at 9:00am

संस्कार नही वर्तमान मे लाभ और लोभ प्रमुख हो गए  है ......संस्कार  असमंजस की मनोदशा का अच्छा प्रस्तुतीकरण !

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 16, 2015 at 6:34am
आदरणीय सुश्री सविता मिश्रा जी , प्रश्न सिरहाने - पैताने का नहीं , दोनों ही शब्द हिंदी भाषा-भाषी भली-भांति जानते हैं , कठिनाई संवाद को समझने में हो रही है ,वह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है , आख़िरी पंक्ति कुछ अवधी में होने से कुछ और अस्पष्ट कर रही है।
सादर।
Comment by Hari Prakash Dubey on April 15, 2015 at 11:50pm

आदरणीया सविता जी , 'पैताने' आंचलिक  शब्द है , या तो आप ( कोष्ठक) में इसका  अर्थ  लिख देतीं तो बात अधिक  स्पष्ट  हो जाती , जैसे  कई जगह इसे  गोडवारी  भी कहा जाता है , इसीलिए ये स्पष्ट नहीं  हो पाया ! 

परबत के पैताने पहुँचे परबत के सिरहाने भी
कहाँ-कहाँ तक ले जाते हैं अक्सर कई बहाने भी......ये 
रामकुमार कृषक जी की कविता है , आनंद लीजिये , खुश रहिये ! सादर 

Comment by rajkumarahuja on April 15, 2015 at 11:45pm

माननीया सविता जी , सुन्दर अभिव्यक्ती ! कभी ये संस्कार संयुक्त परिवारों में बच्चों को घुट्टी में मिलते थे ! कैसी विडंबना है की आज प्रश्न खड़ा होता है की पैताने बैठने में क्या हर्ज़ होता ? सिरहाने-पैताने बैठने की समझ अथवा प्रातःकाल अपने से बड़ों का चरण-स्पर्श करने जैसी छोटी-छोटी बातें कहानी के पन्नो में सिमट कर रह गई हैं ! इन्हें पंक्तियों में उकेरने के लिए साधुवाद ....   

Comment by savitamishra on April 15, 2015 at 11:33pm

शीर्षक समझ नहीं आ रहा था दी तुरंत ..सम्मान ही सुझा उस समय
इन्तजार भी नहीं करें जैसे लिखी दोबार पढ़ी और यहाँ डाल दी ....ये प्रभाकर भैया कि माल्यार्पण वाली (गहरी खाई ) पढने के बाद अचानक दिमाग में आ गयी

Comment by savitamishra on April 15, 2015 at 11:28pm

आदरणीया राजेश दी सादर नमस्ते ..दिल से आभार आपका दी मेरे मन को बखूबी पढ़ा और बोला आपने ..आभार दिल से

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