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चंचल नदी

बाँध के आगे

फिर से हार गई

बोला बाँध

यहाँ चलना है

मन को मार, गई

 

टेढ़े चाल चलन के

उस पर थे

इल्ज़ाम लगे

उसकी गति में

थी जो बिजली

उसके दाम लगे

 

पत्थर के आगे

मिन्नत सब

हो बेकार गई

 

टूटी लहरें

छूटी कल कल

झील हरी निकली

शांत सतह पर

लेकिन भीतर

पर्तों में बदली

 

सदा स्वस्थ

रहने वाली

होकर बीमार गई

 

अपनी राहें

ख़ुद चुनती थी

बँधने से पहले

अब तो सबकुछ

पूछ रही वो

रुक जाए, बह ले

 

आजीवन वो

उसी राह से

हो लाचार, गई

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 9, 2015 at 12:27pm
बहुत बहुत शुक्रिया आ. समर कबीर जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 9, 2015 at 12:25pm
तह-द-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ, आ. शिज्जू जी।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 9, 2015 at 12:24pm
तह-द-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आ. सौरभ जी, आपकी विस्तृत टिप्पणी से मैं आश्वस्त हुआ कि मैं जो कहना चाहता था वो कह सका और मेरा कहा पाठकों तक पहुँच सका। बहुत बहुत धन्यवाद
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 9, 2015 at 12:21pm
बहुत बहुत धन्यवाद आ. विजय शंकर जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 9, 2015 at 12:20pm
बहुत बहुत शुक्रिया आ. मिथिलेश जी। अगर ये नवगीत आपको नवगीत लिखने के लिए प्रेरित कर रहा है तो इस नवगीत का लिखना सार्थक हो गया।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 9, 2015 at 12:16pm
बहुत बहुत शुक्रिया सुनील प्रसाद जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 9, 2015 at 12:16pm
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ प्राची ने। आपकी इस टिप्पणी से नवगीत को कई अर्थ मिल गये। बहुत बहुत धन्यवाद

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2015 at 11:33am

आदरनीय धर्मेन्द्र भाई , नारी की मज़बूरियों को खूब  शब्द  मिले हैं , हार्दिक बधाइयाँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 9, 2015 at 9:59am

अपनी राहें

ख़ुद चुनती थी

बँधने से पहले

अब तो सबकुछ

पूछ रही वो

रुक जाए, बह ले------वाह इन पंक्तियों ने बहुत आकर्षित किया  नारी जीवन को नदी के बिम्ब से बहुत ख़ूबसूरती से उभारा है बहुत ही सुन्दर नवगीत लिखा आपने आ० धर्मेन्द्र जी हार्दिक बधाई 

Comment by Meena Pathak on April 8, 2015 at 6:02pm

बहुत सुंदर प्रस्तुति ...बधाई 

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