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ग़ज़ल : मारो बम गोली या पत्थर कलम नहीं मिटती

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

माना मिट जाते हैं अक्षर कलम नहीं मिटती

मारो बम गोली या पत्थर कलम नहीं मिटती

 

जितने रोड़े आते उतना ज़्यादा चलती है

लुटकर, पिटकर, दबकर, घुटकर कलम नहीं मिटती

 

इसे मिटाने की कोशिश करते करते इक दिन

मिट जाते हैं सारे ख़ंजर कलम नहीं मिटती

 

पंडित, मुल्ला और पादरी सब मिट जाते हैं

मिट जाते मज़हब के दफ़्तर कलम नहीं मिटती

 

जब से कलम हुई पैदा सबने ये देखा है

ख़ुदा मिटा करते हैं अक़्सर कलम नहीं मिटती

-------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Views: 885

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 25, 2015 at 5:57pm
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ गिरिराज जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 25, 2015 at 5:57pm
बहुत बहुत शुक्रिया परी जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 25, 2015 at 5:56pm
कृष्ण मिश्रा जी एवं डॉ गोपाल नारायन जी, मैं आपकी बातों से पूरी तरह असहमत हूँ। इन पंक्तियों से न तो कोई भ्रामक सन्देश जा रहा है न मैं अतिरंजित हुआ हूँ। ध्यान दें मैंने "ईश्वर का घर" नहीं कहा "ईश्वर का दफ़्तर" कहा है। उम्मीद है "घर" और "दफ़्तर" के बारीक अंतर से जो अर्थ उत्पन्न हो रहा है आप उस तक पहुँचेंगे। मक़्ते में "ख़ुदा मिटा करते हैं" का प्रयोग किया गया है जो बहुवचन है। ध्यान दें ख़ुदा एक ही होता है और वो कभी नहीं मिटता। लेकिन जो अपने को ख़ुदा समझा करते हैं वो अक़्सर मिट जाया करते हैं। आशा है एकवचन और बहुवचन के अंतर से जो अर्थ उत्पन्न हो रहा है आप उस तक भी पहुँचेंगे। फिलहाल मुझे ग़ज़ल में किसी सुधार की आवश्यकता नहीं महसूस हो रही है।
Comment by Nirmal Nadeem on February 25, 2015 at 5:43pm

Priy Mitr,

Agar Khuda/ishwar ko ghazal me aise prayog na kare to behtar hoga. mujhe ummed hai k aap meri baat samajh rahe hoge. aapki koshish saraahneey hai. Dhanyawaad.

Comment by maharshi tripathi on February 25, 2015 at 5:30pm

आपकी सुन्दर गजल पर आपको बधाई आ.धर्मेन्द्र कुमार जी |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 25, 2015 at 5:25pm

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , हमेशा की तरह एक बहुत कठिन रदीफ को बहुत आसानी से निभा लिया है आपने । पूरी गज़ल बहुत खूब हुई है । 

जितने रोड़े आते उतना ज़्यादा चलती है

लुटकर, पिटकर, दबकर, घुटकर कलम नहीं मिटती -- बहुत सुन्दर !! दिली मुबारकबाद कुबूल करें ॥

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 25, 2015 at 3:58pm

प्रिय धर्मेन्द्र जी

बहुत अच्छी रचना की है आपने  i बस आखिर के दो बन्दों में आप कुछ अतिरंजित हो गए  i या तो ईश्वर को मानो  मत और मानते हो तो फिर उसका दफ्तर कैसे बंद हो सकता है i यही बात खुदा के सन्दर्भ में आख़री बंद में है  i कविता के भाव क्षणों में ऐसा हो जाता है i आप का श्रम बेकार नहीं है i i सादर i

Comment by Pari M Shlok on February 25, 2015 at 2:37pm
पंडित, मुल्ला और पादरी सब मिट जाते हैं

मिट जाते ईश्वर के दफ़्तर कलम नहीं मिटती
बिलकुल सही कलम नही मिटती वाह क्या भाव हैं ग़ज़ल के उम्दा
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on February 25, 2015 at 1:18pm

पंडित, मुल्ला और पादरी सब मिट जाते हैं

मिट जाते ईश्वर के दफ़्तर कलम नहीं मिटती

 

जब से कलम हुई पैदा सबने ये देखा है

ख़ुदा मिटा करते हैं अक़्सर कलम नहीं मिटती

मुझे खेद है इन पंक्तियों पर..बहुत सुधार की आवश्यकता है..मै आपका भाव समझ रहा हूँ पर..आप इस गज़ल के माध्यम से जो कहना चाहते है...उसको सही तरीके से प्रेषित नही कर पा रहे है...इन पंक्तियों से बहुत ही भ्रामक सन्देश जाने की सम्भावना है..

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