2122—2122—2122—212 |
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रात भर संघर्ष कर जब थक गई ये आँधियाँ |
एक दस्तक दी हवा ने, खुल गई सब खिड़कियाँ |
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जो गया , जाना उसे था , कौन जो ठहरा बता |
बैठ कर लिखते रहोगे मर्सिया कब तक मियाँ |
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तीर बूँदों के भला , क्या आपको आये मज़ा |
भीग जाने का हुनर तो जानती है छतरियाँ |
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तीरगी से क्यूँ लबालब है मरासिम याखुदा |
रौशनी भी कैसे आये आज उनके दरमियाँ |
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ज़ेब में है वज्न कितना , ये जमाना देखता |
फूल कितना खिल गया है, देखती है तितलियाँ |
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सौंपकर अपना खज़ाना ज़िन्दगी ये क्या किया |
इक चिमुट भर दी दुआ फिर एक मुट्ठी गालियाँ |
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ऐ समन्दर बोल तो , ये है भला कैसी सज़ा |
किस तरह मुमकिन बता बैठे किनारे मछलियाँ |
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर |
Comment
"बहुत ही सशक्त रचना है आदरणीय मिथिलेश भाई”
जो गया , जाना उसे था , कौन जो ठहरा बता
बैठ कर लिखते रहोगे मर्सिया कब तक मियाँ.......शानदार , हार्दिक बधाई आपको !
आ० भाई मिथिलेश जी , इस उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई l
तीरगी से क्यूँ लबालब है मरासिम याखुदा |
रौशनी भी कैसे आये आज उनके दरमियाँ |
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ज़ेब में है वज्न कितना , ये जमाना देखता |
फूल कितना खिल गया है, देखती है तितलियाँ |
आदरणीय मिथिलेश जी उम्दा ग़ज़ल हुई है , चिमटी भर दुआ और मुट्ठी भर गलियाँ नये प्रतीक है (ग़ज़ल में )ढेरों दाद कबूल फरमावें |सादर अभिनन्दन | |
जो गया , जाना उसे था , कौन जो ठहरा बता |
बैठ कर लिखते रहोगे मर्सिया कब तक मियाँ |
आदरणीय समर कबीर जी के मार्गदर्शन पश्चात् शेर में संशोधन किया है . कृपया शेर उपरोक्तानुसार पढने का कष्ट करें.
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