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2122 1212 22/112

तू मुहब्बत न आजमा मेरी

है तेरे वास्ते वफ़ा मेरी

 

यूँ कहे पर न जा ज़माने के

गाह चौखट तलक तो आ मेरी

 

अश्क़ चाहें निकलना आँखों से

रोकती है उन्हें अना मेरी

 

कौन रखता हिसाब ज़ख़्मों का

खुद मैं कातिब हयात का मेरी

 

रेत में दफ़्न हो गया कतरा

जो ज़बीं से अभी गिरा मेरी

 

ज़ख़्म देते हैं वो मुझे पहले

फिर वही करते हैं दवा मेरी

 

हर सफर में उदास राहों पर

साथ मेरे चले सदा मेरी

 

राहे माज़ी में लौटकर देखा

शक्लें बिखरी थीं जा ब जा मेरी

 

(कातिब- लेखक,  जा ब जा- जगह-जगह)

 

-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by शिज्जु "शकूर" on December 30, 2014 at 9:08am

आदरणीय डॉ आशुतोष सर आपका हार्दिक आभार


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Comment by शिज्जु "शकूर" on December 29, 2014 at 11:27pm

आदरणीय सोमेश कुमार जी आपका हार्दिक आभार


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Comment by शिज्जु "शकूर" on December 29, 2014 at 11:26pm

आदरणीय सौरभ सर रचना पर आपकी प्रतिक्रिया की सदैव प्रतीक्षा रहती है आपका बहुत बहुत शुक्रिया हौसलाअफ़ज़ाई के लिये


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Comment by शिज्जु "शकूर" on December 29, 2014 at 11:25pm

आदरणीय मिथिलेश जी आप स्वयं एक समर्थ रचनाकार हैं, आपके अनुमोदन से रचनाकर्म सार्थक हुआ है आपका हार्दिक आभार 


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Comment by शिज्जु "शकूर" on December 29, 2014 at 11:23pm

आदरणीय हरिप्रकाश दूबे जी मेरी रचना को मान देने के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on December 29, 2014 at 11:22pm

आदरणीय गणेश जी आपका हार्दिक आभार जो आपने रचना को सराहा


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 29, 2014 at 11:22pm

आदरणीय गिरिराज सर आप जैसे रचनाकार का अनुमोदन पा के रचनाकर्म सार्थक हुआ है आपका बहुत  बहुत शुक्रिया

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 29, 2014 at 2:33pm

आदरणीय शिज्जू जी ..इस ग़ज़ल के हर उम्दा शेर के लिए आपको  ढेर सारी बधाई ....

कौन रखता हिसाब ज़ख़्मों का

खुद मैं कातिब हयात का मेरी..पर यह शेर तो दिल को बेहद भाया ..सादर 

Comment by somesh kumar on December 28, 2014 at 11:17pm

तू मुहब्बत न आजमा मेरी

है तेरे वास्ते वफ़ा मेरी

कौन रखता हिसाब ज़ख़्मों का

खुद मैं कातिब हयात का मेरी

इन दोनों शे'रों ने छु लिया ,गज़ल स्वयं में समर्थवान कलमकार की कलम से है इससे ज़्यादा क्या कहना 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 28, 2014 at 9:04pm

बहुत खूब भाई शिज्जू जी.. इस पूरी ग़ज़ल को एक साँस में पढ़ गया. हर शेर पर मुग्ध होता गया. आपकी ग़ज़ल के ये शेर बातचीत करते हैं. वाह वाह !

लेकिन इन दो अशआर पर मैं विशेष तौर दाद दे रहा हूँ.
 
कौन रखता हिसाब ज़ख़्मों का
खुद मैं कातिब हयात का मेरी

राहे माज़ी में लौटकर देखा
शक्लें बिखरी थीं जा ब जा मेरी

ढेर सारी शुभकामनाएँ

कृपया ध्यान दे...

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