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ग़ज़ल-उमेश कटारा

फँस गया हूँ आफ़तों में
आज़ हूँ मैं पागलों में

क्या सुँकू तूने कमाया
क्या मिला है फ़ासलों में

मज़हबी आतंक से अब
आदमी है दहशतों में

सब ग़िले शिक़वे भुलादो
क्या रख़ा है रतज़गों में 

ख़ो दिये हैं घर हजारों
जिन्द़गी ने हादसों में

मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा

Views: 587

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 25, 2014 at 1:01pm
मतला संशोधन से ग़ज़ल निखर आई आदरणीय उमेश कटारा जी। हार्दिक बधाई इस उम्दा ग़ज़ल के लिए।
Comment by somesh kumar on December 22, 2014 at 11:07pm

जो भी है भावप्रद है ,बाकी गुरुजन की बात मानें और आगे बढ़े |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 22, 2014 at 8:34pm

आदरणीय उमेश कटारा जी अच्छी गैर मुरद्दफ़ गज़ल है शेष आदरणीय गिरिराज सर ने तो कह ही दिया है।

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 22, 2014 at 7:25pm

मज़हबी आतंक से अब
आदमी है दहशतों में

और 

ख़ो दिये हैं घर हजारों
जिन्द़गी ने हादसों में

चिंतनीय और मननीय पंक्तियां मेरी नजर में...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 22, 2014 at 4:12pm
मैं कभी था दिलबरों में
आज हूँ मैं पागलों में

आदरणीय उमेश जी ऐसा कुछ बदलाव करना होगा।
बाकि दिलबरों सुझाव नहीं है दिलबर एक ही उचित है।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 22, 2014 at 4:05pm
क्या बात है आदरणीय गिरिराज सर, नज़र आपकी भी कमाल है इस पर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया इसीलिए आपको 'सर' कहता हूँ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 22, 2014 at 3:44pm

कटारा जी

बेहतरीन भाव्  i काफिया-  रदीफ़ पर थोडा ध्यान और दें i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 22, 2014 at 3:27pm

आदरणीय उमेश कटारा भाई , गज़ल अच्छी  कही है , बधाई स्वीकार करें ।

काफिया -- दिलजलों , फासलों , पागलों के बाद दहशतों , हादसों रतजगों   सही नही लग रहा है   -- उपर के शे र मे  अलों काफिया है और बाद के शे र मे केवल ओं । देख ली जियेगा ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 22, 2014 at 9:09am

ख़ो दिये हैं घर हजारों
जिन्द़गी ने हादसों में........बड़ा शेर ....

उम्दा ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय उमेश कटारा जी

Comment by Dr. Vijai Shanker on December 21, 2014 at 9:57pm
ख़ो दिये हैं घर हजारों
जिन्द़गी ने हादसों में ॥
सुन्दर प्रस्तुति, बधाई, आदरणीय उमेश कटारा जी , सादर।

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