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ग़ज़ल---उमेश कटारा

मुहब्बत का ज़ला हूँ मैं,पिघलता ही रहा हूँ मैं
ख़ुदा से माँगकर तुझको,भटकता ही रहा हूँ मैं
................
समन्दर के किनारों ने समेटा है बहुत मुझको
मगर आँखों की कोरों से निकलता ही रहा हूँ मैं
................
अगर सच बोलता हूँ तो,समझते हैं मुझे पागल
मगर सच्चाई को लेकर ,उबलता ही रहा हूँ मैं
................
सितारों की कसम ले ले,नजारों की कसम ले ले
तेरे दीदार की ख़ातिर मचलता ही रहा हूँ मैं
.................
मेरी किस्मत के सौदागर ,मुझे इन्साफ तो दे दे
मेरी तनहाई को लेकर, सिमटता ही रहा हूँ मैं
................
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by umesh katara on December 10, 2014 at 8:26pm

somesh kumar जी शुक्रिया

Comment by umesh katara on December 10, 2014 at 8:26pm

योगराज प्रभाकर जी शुक्रिया

Comment by umesh katara on December 10, 2014 at 8:25pm

Meena Pathak जी शुक्रिया

Comment by umesh katara on December 10, 2014 at 8:25pm

गिरिराज भंडारी जी शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 10, 2014 at 11:35am

आदरणीय उमेश भाई , बढ़िया ग़ज़ल कही है ,

समन्दर के किनारों ने समेटा है बहुत मुझको
मगर आँखों की कोरों से निकलता ही रहा हूँ मैं -- वाह ! बहुत बधाइयाँ ।

Comment by Meena Pathak on December 9, 2014 at 8:00pm

उम्दा गज़ल ..बहुत बहुत बधाई आप को 


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 9, 2014 at 11:51am

अच्छी ग़ज़ल हुई है आ० उमेश कटारा जी. दिली बधाई।

Comment by somesh kumar on December 9, 2014 at 10:27am

समन्दर के किनारों ने समेटा है बहुत मुझको
मगर आँखों की कोरों से निकलता ही रहा हूँ मैं

बहुत सुंदर ,भावपूर्ण प्रेम के अहसास में सराबोर गज़ल 

Comment by umesh katara on December 8, 2014 at 8:22pm

शुक्रियाgumnaam pithoragarhi जी

Comment by umesh katara on December 8, 2014 at 8:21pm

शुक्रियामिथिलेश वामनकर जी शुक्रिया

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