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बराबरी (लघुकथा)

"दो लड़कियाँ तो पहले ही थी, अब ये एक और हो गई।" उसने बड़ी मायूसी से कहा।
"तू चिन्ता मत कर कमला। आजकल की लड़कियाँ किसी भी चीज़ मेँ पीछे नही हैँ।, हर काम बराबर से करती हैँ, बल्कि माँ बाप के लिए जितना लड़कियाँ करती हैँ उतना तो आजकल लड़के भी नही करते।" सरोज ने अपनी पड़ोसन को समझाते हुए कहा।
"तू ठीक ही कहती है सरोज।  अरे हाँ याद आया,  तेरी बहू भी तो पेट से है न? कौन सा महीना है?"
"पाँचवा महीना है। अगर ठाकुर जी की कृपा रही तो पोता ही होगा।"

"पूजा"
अप्रकाशित एवं मौलिक

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 5, 2014 at 3:28pm

दूसरों को दिए जाने वाले प्रवचन अक्सर खुद के लिए बदल जाया करते हैं, बहुत ही सुन्दर लघुकथा प्रस्तुत हुई है आदरणीया पूजा जी, बधाई स्वीकार करें, सादर।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 5, 2014 at 2:30pm

सबसे पहले तो ओबीओ परिवार में आपका अभिनन्दन आ० पूजा यादव जी। आपकी लघुकथा बहुत ही भावपूर्ण है जिस हेतु आपको हार्दिक बधाई देता हूँ। कथनी और करनी में फर्क को बहुत सुंदरता से पेश किया है आपने। यहाँ बनी रहें और प्रयासरत रहें।   

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 5, 2014 at 2:27pm
बहुत सुंदर . आपने बखूबी तरीके से मुफ्त मे दूसरों को दी गई सलाह को स्पष्ट किया है, जबकि इंसान कीअपनी खुशियां कहीं और ही हैं. बधाई आदरणीया पूजा जी

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