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अभी हांथों की मेहँदी भी नहीं सूखी थी और ये हादसा |
" भगवान को यही मंजूर था " , लोग दिलासा दे रहे थे |
" लेकिन जिस भगवान को ये मंजूर था वो भगवान हमें मंजूर नहीं ", और उसके मन के भाव दृढ हो गए |

मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on October 16, 2014 at 12:14pm

बहुत बहुत आभार डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी..

Comment by विनय कुमार on October 16, 2014 at 12:13pm

बहुत बहुत आभार गणेश जी बागी जी | जी आपका कहना सही है , उस पंक्ति के बिना भी सन्देश स्पष्ट है | 

Comment by विनय कुमार on October 16, 2014 at 12:11pm

बहुत बहुत आभार शिज्जु शकूर जी..

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 15, 2014 at 6:20pm

मार्मिक i आस्था-अनास्था का द्वन्द i


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 15, 2014 at 12:57pm

//और उसके मन के भाव दृढ हो गए //

 

इस पक्ति को लिखने की आवश्यकता नहीं थी।
//" लेकिन जिस भगवान को ये मंजूर था वो भगवान हमें मंजूर नहीं "// यह पक्ति भाव व्यक्त करने में सक्षम है,

बहुत ही प्रभावी लघुकथा हुई है,बहुत बहुत बधाई आदरणीय विनय जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 15, 2014 at 8:31am

मार्मिक कथा है आदरणीय विनय जी आखिर में एक अच्छा संदेश भी दिया है बधाई आपको

Comment by विनय कुमार on October 14, 2014 at 11:45pm

बहुत बहुत आभार जीतेन्द्र जी ..

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 14, 2014 at 11:20pm

दिलासा और झूठी सहानुभूतियों के सहारे कुछ नही मिलता,  दृडता से लिये गये  फैसले पर  ही जीवन जिया जाता है. बहुत सुंदर लघुकथा आदरणीय विनय जी. आपको हार्दिक बधाई

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