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 दूर किसी स्टेशन से

शहर के ट्रैफिक को चीरते हुए

फुटपाथ पर उनींदे पड़े बच्चे का स्पर्श लिए

चौथे माले पर बेरोजगारों के कमरे तक

तुम्हारा आना

 

उन उखड़ी सड़कों से होते हुए

जहाँ की धूल विकास के नारों पर मुस्कुराती है,

बस की पिछली सीढ़ियों से लटकते हुए

बेटिकट पहुँचना मेरे गाँव

और मुझे छज्जे के कोने पर बैठा देख

यक-ब-यक मुस्कुराना  

 

तुम्हारा आना

छिपकली की तरह दीवार पर

आँधियों की तरह नहीं

पलकों पर नींद की तरह

बे-शोर

 

बुलेट बनते युग में

तुम्हारा आना मृत्यु की तरह

शनैः शनैः

मगर इस विश्वास के साथ

कि यह आना

सबसे आरामदायक भौतिक क्रिया है,

है सुकूनोत्सर्जक

सदैव के लिए |

 

 (मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 10, 2014 at 4:30pm
आशीष
कविता पर आपको आशीष i

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Comment by rajesh kumari on October 7, 2014 at 8:10pm

कोई सीमा नहीं कोई बंधन नहीं कोई रुकावट नहीं कितनी स्वतंत्र होती हैं न हम लोगों कि कवितायेँ कभी कभी कितनी भारी  होती हैं वजन में न जाने किस किस का दर्द अपनी झोली में समेट लाती हैं ----मेरी ही एक पुरानी कविता की पंक्तियाँ ...ये रचना पढ़कर बरबस ही याद आ गई ,बहुत सुन्दर प्रस्तुति बहुत से मुद्दों मो समेटे .हार्दिक बधाई आपको प्रिय आशीष बेटा. 

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"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
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"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
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"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
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"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त चित्र पर बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार "
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