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हमारी दिल परस्ती का

1222 1222 1222 1222

हमारी दिल परस्ती का वो ये ईनाम देता है ।
हमारे दिल के टुकडे कर हमेँ इल्जाम देता है ।

सयाना खुद को हमको नासमझ पागल समझता है ,
दगाओँ को सदा अपनी वफा का नाम देता है ।

हमारा दिल दुखाने की हदेँ सब तोड दी उसने ,
हमारे सामने गैरोँ का दामन थाम लेता है ।

कभी बसने नहीँ देता हमारी ख्वाहिशोँ का घर ,
इरादोँ को फकत अपने सदा अंजाम देता है ।

तरसती हूँ मै उसके प्यार के दो बोल की खातिर ,
जो चुभते हैँ मुझे ताने वो सुबहो शाम देता है ।

कि इतने पर भी मुझको देख उसका मुस्करा देना ,
मेरे बेचैन इस दिल को बहुत आराम देता है ।

मौलिक व अप्रकाशित
नीरज मिश्रा

Views: 651

Comment

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Comment by Santlal Karun on September 21, 2014 at 9:21pm

आदरणीय प्रेम जी,

इस सधी हुई ग़ज़ल के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ! --

"हमारी दिल परस्ती का वो ये ईनाम देता है ।
हमारे दिल के टुकडे कर हमेँ इल्जाम देता है ।"

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 20, 2014 at 2:50pm

बहुत उम्दा गजल कही आपने i  बधाई हो i

Comment by Neeraj Nishchal on September 20, 2014 at 12:05am
आदरणीय विश्वकर्मा जी मै अभी इस काबिल नहीँ कि मै आपका knowledge बढा सकूँ , अभी तो बस इतना ही सँभव है कि मै आपके द्वारा अपने संशय मिटा सकूँ मै एक उदाहरण और पेश करना चाहूँगा तकाबुले रदीफ दोष को लेकर किसी शायर की गजल है

खुद अपने को ढूँढा था ।
मैने तुझे यूँ चाहा था ।
तू बिल्कुल वैसा निकला ,
जैसा मैने सोचा था ।
अपने जख्म दिखाता क्या ,
वो भी तो मुझ जैसा था ।
मेरा साथ वो क्या देता ,
वो खुद भीड मेँ तनहा था ।
मुझको मिला इक उम्र के बाद
जो मेरी उम्र का हिस्सा था ।
Comment by Ram Awadh VIshwakarma on September 19, 2014 at 10:21pm

आदरणीय
इस गजल में पहले दूसरे एवं तीसरे शेर में ‘के साथ’ रदीफ बनाकर गजल को कहा गया है। मेरी जानकारी के अनुसार पहला शेर मतला है दूसरा शेर हुसने मतला कहलाता है और तीसरी शेर भी हुसने मतला कहलायेगा इस लिये इसमें तकाबुले रदीफ का दोष नहीं है। अगर आपको इसके अतिरिक्त मालूम हो तो जरूर बतायें जिससे हमारा भी ज्ञान बढ़े।

Comment by Neeraj Nishchal on September 19, 2014 at 3:37pm

आदरणीय नरेंद्र जी बहुत बहुत आभार |

Comment by Neeraj Nishchal on September 19, 2014 at 3:37pm

आदरणीय विश्वकर्मा जी आप का बहुत आभार | तकाबुले रदीफ़ तो दोष मुझे भी पता है पर दूसरा वाला दोष मेरे संज्ञान मे नही है मै किसी की एक ग़ज़ल लिखता हूँ ज़रा बताइयेगा इसमें तकाबुले रदीफ़ कैसे नही है 

कुछ दिन कटे हैं गम मे तो कुछ दिन ख़ुशी के साथ |

होता रहा मज़ाक मेरी ज़िन्दगी के साथ |

एक हादसा है ये भी मेरी ज़िन्दगी के साथ |

मै किसी के साथ मेरा दिल किसी के साथ |

कुदरत ने क्या मज़ाक किया आदमी के साथ |

जीना ख़ुशी के साथ न मरना ख़ुशी के साथ |

किस मुहं से कोई अजमते आदम का नाम ले ,

जब आदमी फरेब करे आदमी के साथ |

Comment by Neeraj Nishchal on September 19, 2014 at 3:06pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी बहुत बहुत आभार व्यक्त करता हूँ

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on September 19, 2014 at 10:10am

आदरणीय मिश्रा जी बहुत सुन्दर गजल आपने कही इसके लिये आप को बधाई परन्तु मेरे ज्ञान के अनुसार गजल में दो दोष हैं
दूसरे शेर में तकाबुले रदीफ का और तीसरे शेर में रदीफ देता बदल कर लेता कर दिया है जो कि मेरे ज्ञान के अनुसार गलत है हो सकता है मैं गलत भी होऊँ। अच्छे शेरनिकालने के लिये बधाई।


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 19, 2014 at 9:10am

बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है भाई नीरज जी , आपको दिली बधाइयाँ |

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