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( ग़ज़ल ) जलाने को तुम्हारे हौसले तैयार बैठे हैं (गिरिराज भंडारी )

१२२२  १२२२ १२२२ १२२२

करेंगे होम ही, लेकर सभी आसार बैठे हैं

जिगर वाले जला के हाथ फिर तैयार बैठे हैं

ज़रा ठहरो छिपे घर में अभी मक्कार बैठे हैं

जलाने को तुम्हारे हौसले तैयार बैठे हैं

 

बहारों से कहो जाकर ग़लत तक़सीम है उनकी

कोई खुशहाल दिखता है , बहुत बेज़ार बैठे हैं

 

समझते हैं तेरे हर पैंतरे , गो कुछ नहीं कहते

तेरे जैसे अभी तो सैकड़ों हुशियार बैठे हैं

 

तुम्हें ये धूप की गर्मी नहीं लगती यूँ ही मद्धिम

तपिश के सामने हम हैं , बने दीवार बैठे हैं

 

कभी सैलाब ने धोया , कभी सूखा सताता है

हमें बरबाद करने को बहुत से यार बैठे हैं

 

ये अपने घर का मस्ला है, इसे छोड़ो, कहीं रख दो

अभी तो मुल्क के दुश्मन लगे तैयार बैठे हैं

 

बहुत मायूस होने की ज़रूरत है नहीं साक़ी

क़तारों में अभी सौ - सौ तेरे बीमार बैठे हैं

********************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 24, 2014 at 10:56pm

आदरणीया शशि जी , ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 24, 2014 at 10:56pm

आदरणीय  सौरभ भाई , आपकी सहमति से मेहनत सफल हो गयी , आपका हार्दिक आभार |

Comment by shashi purwar on August 24, 2014 at 6:49pm

वाह वाह बहुत  सुन्दर गजल है आ. गिरिराज जी , आपकी गजले सदैव मुझे बहुत पसंद आती है हार्दिक बधाई वाह अलग अंदाज

ज़रा ठहरो छिपे घर में अभी मक्कार बैठे हैं

जलाने को तुम्हारे हौसले तैयार बैठे हैं

 

बहारों से कहो जाकर ग़लत तक़सीम है उनकी

कोई खुशहाल दिखता है , बहुत बेज़ार बैठे हैं


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 23, 2014 at 10:52pm

नया मतला अच्छा हुआ है आदरणीय

जय हो..

:-)))

Comment by विजय मिश्र on August 22, 2014 at 5:38pm
क्षमा करेंगे आ० सौरभजी , बस आपसे यहीं सुनने को मन मचल रहा था |कभी-कभी हम जैसों को भी खुश्की लगती है |मेरे लिखने का अन्दाज हल्का ही था |पुनः क्षमा याचना , अन्यथा न लें |

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 22, 2014 at 5:23pm

हुस्नेमतला की प्रतीक्षा रहेगी आदरणीय गिरिराजभाईजी. 

शेर में हआ परिवर्तन सटीक और तोषदायी हुआ है.  बधाई हो.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 22, 2014 at 5:22pm

आदरणीय विजय मिश्रजी,

// मीन- मेष मैं नहीं कर सकता ,मुझे पढ़ने में मजा आया और गजल का टोन बड़ा मस्ताना लगा //

आप किस विधि को मीन-मेष निकालना कहते हैं ? यह तो निहायत ही नकारात्मक शब्द है.

आदरणीय, आप इस मंच के अब पुराने सदस्य हैं. मंच की अवधारणा को आत्मसात करें जिसके अनुसार मंच सदस्यों को रचनाकर्म के अभ्यास के साथ-साथ पाठकधर्म के प्रति भी प्रेरित करता है.

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 22, 2014 at 4:45pm

आदरणीय विजय मिश्र भाई , आपकी ग़ज़ल पर उपस्थिति आनंद कारी है , ग़ज़ल की सराहना  के लिए आपका हार्दिक आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 22, 2014 at 4:43pm

आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल की भूरी भूरी प्रशंशा के लिए आपका , दिली आभार |

काँमा , हटा लूंगा , मैं पढ़ते समय खुद वहाँ रुक जाता था इसलिए काँमा लगा दिया था |

मतला दूसरा कहने के प्रयास में हूँ , अभी वाला हुश्ने मतला बना लूंगा |

अतिम शेर को ऐसा कर रहा हूँ --

बहुत मायूस होने की ज़रूरत है नहीं साक़ी

क़तारों में अभी  सौ  सौ तेरे बीमार बैठे हैं   --- कैसा रहेगा ? ग़ज़ल पर आपकी इस उचित सलाह के लिए बहुत शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 22, 2014 at 4:35pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया |

कृपया ध्यान दे...

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