मन में सद्विचार रहे, नेक करे वह काम,
फल की इच्छा छोड़कर, कर्म करे निष्काम
कर्म करे निष्काम, भाव संतोषी पाते
काम क्रोध मद लोभ स्वार्थ के रंग दिखाते
कर लक्षमण सद्कर्म नम्रता रहे वचन में
गीता में सन्देश, रहे निश्छलता मन में ||
(2)
करे प्रशंसा स्वयं की, और स्वयं से प्रीत,
आत्म मुग्ध के आग्रही, ये दर्पण के मीत
ये दर्पण के मीत, संग चमचों के रहते
अपने को सर्वोच्च अन्य को तुच्छ समझते
कह लक्ष्मण कविराज इन्हें भाती अनुशंसा
इनको होता हर्ष, तभी जब करे प्रशंसा ||
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
संशोधन की पुष्टि करने के लिए आभार आदरणीय |
सादर
सादर धन्यवाद आदरणीय
बहुत सही संशोधन किया है आपने. ..
शुभ-शुभ
छंद सार्थक बता उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार श्री सौरभ भाई जी |
आपकी टिपण्णी की मै इसीलिए प्रतीक्षा करता हूँ कि छंद का सही परिक्षण से लाभान्वित हो सकूँ |
आपकी नजरों से छंद का दोष ओझल नहीं हो सकता |
प्रथम व तृतीय चरण का अंत यगण,जगण से नहीं हो सकता |
करे प्रशंसा स्वयं की, और स्वयं से प्रीत, की जगह --- स्वयं प्रशंसा कर रहे, और स्वयं से प्रीत क्या ठीक लगता है आदरणीय ?
हार्दिक आभार स्वीकारे आदरणीय श्री विजय निकोरे जी
छंद के कथ्य और भाव पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार श्री विजय मिश्र जी
सार्थक और सटीक ! बहुत खूब ! दोनों कुण्डलिया मन भायीं.
बस एक प्रश्न, आदरणीय ... स्वयं की क्या यगण नहीं बनाता ? तो क्या यगण से दोहे वाले भाग के विषम चरण का अंत हो सकता है ?
अति सुन्दर। बधाई, आदरणीय लक्ष्मण जी।
छंद सराहने के लिए आपका हार्दिक आभार श्री गिरिराज भंडारी जी
कुण्डलिया छंद पसब्द करने के लिए शुक्रिया श्री लक्ष्मण धामी जी एवं श्री जवाहर लाल सिंह जी
आप मेरी कुण्डलिया पढ़ते रहे है, यह जानकार ख़ुशी हुई श्री जवाहर लाल सिंह जी
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