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ग़ज़ल ..आँख मूँदते ही ....सारे ख़ुदा गए.

ग़ज़ल ..
गाल गाल गा गा ///// गा गा लगा लगा  
मक्ते से पहले वाले शेर में तकाबुले रदीफ़ है लेकिन solution के आभाव में उसे ऐसे ही स्वीकार किया है. 
.
रंग हम जहाँ में क्या क्या मिला गए
हार कर लो खुद को सब को जिता गए.
.

सब कहें पुराना किस्सा सुना गए,
गो बता के सबकुछ सबकुछ छुपा गए.
.

कुछ कहार मिलकर कमरा सजा गए,
और फिर उसी में तन्हा सुला गए.
.

ख़ाक सबने डाली इसका गिला करें क्या,
हाड माँस मिट्टी, मिट्टी बिछा गए.
.

बाद के सफ़र में मत पूछ क्या हुआ,
आँख मूँदते ही सारे ख़ुदा गए.
.

चाक पर फ़रिश्ते घडने लगे मुझे,
फिर नया ठिकाना मुझ को बता गए.
.

वो जहां अलग था, है ये जहां अलग
'नूर' तुम थे कैसे, क्या होके आ गए.

.
निलेश "नूर"
मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 10, 2017 at 9:19am

आभार आ. विजय जी 

Comment by vijay nikore on August 11, 2014 at 7:26pm

इस विचारप्रधान गज़ल के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय नीलेश जी।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 11, 2014 at 11:53am

शुक्रिया आ. गिरिराज जी ..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 11, 2014 at 10:25am

आदरणीय नीलेश भाई , खूबसूरत  आध्यात्मिक ग़ज़ल के लिए आपको बधाइयाँ ||

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 11, 2014 at 8:38am

आ. सौरभ जी ... आप मर्म तक पहुंचे तो लिखना सफल हुआ..
सादर  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2014 at 3:02am

चाहे जिस भी मनोदशा में आपने इस ग़ज़ल पर कलमग़ोई की है, निर्गुण का प्रभाव अत्यंत मुखर है, आदरणीय नीलेशजी.

गहन भाव से पगी ग़ज़ल के शेर जन्म-चक्र के विन्दु साझा कर रहे हैं. दिल से बधाई स्वीकार करें.
सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 9, 2014 at 5:21pm

शुक्रिया आ. डॉ विजय शंकर जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 9, 2014 at 5:20pm

शुक्रिया आ. नरेन्द्र सिंह जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 9, 2014 at 5:20pm

शुक्रिया आ. डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी 

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 9, 2014 at 5:06pm
बहुत सुन्दर आदरणीय नीलेश सेवगांवकर जी , आँखे मूंदते ही… बहुत कुछ कह दिया। बहुत बहुत बधाई .

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