सिसकियाँ भरते रहे हम रात भर
चाँद ने भी देखा पर कुछ ना कहा
हवाएँ भी सुनकर चलती रही
दर्द सीने में लहरों सा उठता रहा
चाँदनी बादलों में छुपने लगी
सांस भी रह-रह कर रूकने लगी
सिर्फ बची मैं और मेरी तन्हाईयाँ
यादें करती रही पीछा बनकर परछाइयाँ
घटाओं ने समझा दर्द बस मेरा
बरसती रही वो रात भर
जख्म रिस-रिस कर ऐसे बहने लगे
घाव मरहम की ख्वाहिश में सहने लगे
पिघलकर रूह बिछने लगी
साया भी खुद से सहमने लगा
लौ जलती रही मगर तेल कम था
एक चमक सी उठी और दिया बुझ गया
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
रनाकर्म को सतत करें आदरणीया, बहुत से पहलू सामने खुलेंगे.
शुभेच्छाएँ
आदरणीया प्रज्ञा श्रीवास्तव जी
दर्द की अति और कोइ समझने वाला न हो ...कोइ दिलासा दे कर सम्हालने वाला न हो.. न कोइ इंसान , न प्रकृति.... ऐसे नैराश्य में भी एक रौशनी की किरण अवश्य ही कहीं ना कहीं ज़रूर रहती है..... जिसे हम ही देखना नहीं चाहते या फिर देख कर भी अनदेखा कर देते हैं..
काव्य का लक्ष्य उस किरण की ओर पाठक के लिए इशारा करना होना चाहिए. अन्यथा निराशावादी कवितायेँ कईयों को अपने ही मन की बात लगती सी एक गलत सन्देश दे जाती हैं.
सकारात्मकता से ही ह्रदय में जीवन संचार होता है... और ये चयन हमेशा ही मनुष्य के हाथ में होता है.
इस अभिव्यक्ति के लिए मेरी शुभकामनाएं
सस्नेह
बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना आदरणीया प्रज्ञा जी, हार्दिक बधाई आपको
बहुत सुन्दर
बहुत सुन्दर ... भावपूर्ण प्रस्तुति ... सादर बधाई
आ. प्रज्ञा जी , सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिये बधाई ॥
मैं गोपाल जी की बातों से सहमत हूँ.....प्रयास ज़ारी रखें /सादर.
प्रज्ञा जी
आपकी दुखांत कविता कई मायने में अच्छी है किन्तु यदि करुणांत करना था तो पीड़ा को थोडा और उभारना चाहिए था ताकि अंत स्वाभाविक लगे i कलम पर आपकी पकड़ अच्छी है और विषय से भटकाव नहीं है i शुभ कामना सहित i
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