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गालों पर बोसा दे देकर मुझको रोज़ जगाती है

गालों पर बोसा दे देकर मुझको रोज़ जगाती है

छप्पर के टूटे कोने से याद की रौशनी आती है

दालानों पर आकर, मेरे दिन निकले तक सोने पर

कोयल, मैना,  मुर्ग़ी, बिल्ली मिलकर शोर मचाती है

सबका अपना काम बंटा है आँगन से दालानों तक

गेंहूँ पर बैठी चिड़ियों को दादी मार बगाती है

यूं तो है नादान अभी, पर है पहचान महब्बत की

जितना प्यार करो बछिया को उतनी पूँछ उठती है

लाख छिड़कता हूँ दाने और उनपर जाल बिछाता हूँ

लेकिन घर कोई चुहिया मुझको हाथ न आती है

शाम सवेरे छोटे-छोटे बच्चों के स्वर से निकली

रामायण की चौपाई मेरे दिल को छू जाती है

मेरी रोटी और पकाए उसकी साग कहीं सीझे

एक ही मचिश की तीली सब चूल्हों को सुलगाती है

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by बृजेश नीरज on May 27, 2014 at 7:31pm

अच्छा प्रयास है! टंकण की त्रुटियों से बचना बहुत जरूरी है.

इस अभिव्यक्ति पर आपको हार्दिक बधाई!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 27, 2014 at 2:12pm

जितना प्यार करो बछिया को उतनी पूँछ उठती है...उठती शायद टंकण की बजह से हो गया है उठाती होना चाहिए ..इस ग़ज़ल पर मरती तरफ से हार्दिक शुभकामनाएं सादर

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 26, 2014 at 2:57pm

शाम सवेरे छोटे-छोटे बच्चों के स्वर से निकली

रामायण की चौपाई मेरे दिल को छू जाती है

मेरी रोटी और पकाए उसकी साग कहीं सीझे

एक ही मचिश की तीली सब चूल्हों को सुलगाती है

सुन्दर भाव ...अच्छी रचना ....गांव का दृश्य झलका प्यारा प्यारा
भ्रमर ५


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 26, 2014 at 12:47pm

आदरणीय सुशील भाई , बहुत सुन्दर चित्र खींचा है भाई , आपको बधाई ॥

Comment by Sarita Bhatia on May 24, 2014 at 11:52am

नीरज मिश्र जी ने सही कहा एक महक है आपकी कविता में 

Comment by Neeraj Nishchal on May 24, 2014 at 1:16am
Ek mahak hai aapki kavita me padh kar dil mahak utha badhai
Comment by Neeraj Neer on May 23, 2014 at 8:21am

सुन्दर प्रस्तुति, वर्तनी की गलतियां सुधार लें तो बेहतर.. 

Comment by Meena Pathak on May 22, 2014 at 10:40pm

बहुत सुन्दर दृश्य प्रस्तुत किया आप ने जैसे हम अपने गाँव में पहुँच गये हों ... बहुत बहुत बधाई 

Comment by Shyam Narain Verma on May 22, 2014 at 10:53am
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई 

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