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स्त्री की दुनिया

स्त्री की ये दुनिया
बहुत सिमटी हुई
बहुत कोमल
ठीक जैसे आईना
जरा सी खरोंच काफी
उसके स्वरूप को
निमिष भर में वीभत्स करने
और
वो खरोंच धीरे-धीरे बढ़ी
तो
आईना चटक जाए
ये अनुभूत सत्य है ,
उस चटक को कई बार
महसूस किया
आईने के सौ -सौ टुकडो को
अश्रू युक्त सिसकियां सुनाते
उम्मीदों के नीड़ को
थरथरा धूलि धूसरित देख
रोम-रोम काँप उठा था
इसीलिए कहती हूँ
लौट जाओ आवारा बादल
किसी के आशियाने उजाड़ने का जुनून
कई गोरैयाओं को घायल कर देगा
तब आकंठ डूब जाओगे तुम
रक्त-वर्णिम अथाह नदी में
स्त्री की संवेगों की गठरी जो,
मचल-मचल जा रही
उसके मन की मूक वेदना को
दो पल सहलाने लगो
स्त्री की ये दुनिया
मर -मर कर जीती है
जाने कितनी बार मरती है
खुद को जिन्दा रखने के लिये

(मौलिक व अप्रकाशित रचना )

दीपिका द्विवेदी "दीप "

Views: 485

Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 23, 2014 at 1:36am

संवेदना को यथोचित शब्द मिले हैं.. आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी. 

शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 9, 2014 at 10:28pm

बहुत बढ़िया आदरणीया दीपिका जी भावपूर्ण अभिव्यक्ति हेतु बधाई !

Comment by Meena Pathak on May 8, 2014 at 7:42pm

बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना ... बधाई स्वीकारें 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 8, 2014 at 7:51am

bahut बहुत मर्मस्पर्शी रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीया दीपिका ज़ी

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 7, 2014 at 6:04am

स्त्री की ये दुनिया 
मर -मर कर जीती है 
जाने कितनी बार मरती है 
खुद को जिन्दा रखने के लिये

अत्यंत मार्मिक चित्रण आपका अभिनन्दन !

Comment by Savitri Rathore on May 6, 2014 at 5:36pm

एक नारी के मन की पीर को भावपूर्ण अभिव्यक्ति हेतु बधाई !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on May 4, 2014 at 9:10pm

संवेदनायें मुखरित हुई, भावपूर्ण रचना हेतु बधाई...............

Comment by Deepika Dwivedi on May 4, 2014 at 7:48pm

coontee mukerji जी आपका बहुत-बहुत आभार मेरे भाव आपके मन तक पहुँचें

Comment by coontee mukerji on May 4, 2014 at 12:10am

मन की आंतरिक पीड़ा से जुझती एक औरत केदिल से निकली आवाज़......बहुत मार्मिक रचना. आपको बधाई है. दीपिका जी.

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