स्त्री की ये दुनिया
बहुत सिमटी हुई
बहुत कोमल
ठीक जैसे आईना
जरा सी खरोंच काफी
उसके स्वरूप को
निमिष भर में वीभत्स करने
और
वो खरोंच धीरे-धीरे बढ़ी
तो
आईना चटक जाए
ये अनुभूत सत्य है ,
उस चटक को कई बार
महसूस किया
आईने के सौ -सौ टुकडो को
अश्रू युक्त सिसकियां सुनाते
उम्मीदों के नीड़ को
थरथरा धूलि धूसरित देख
रोम-रोम काँप उठा था
इसीलिए कहती हूँ
लौट जाओ आवारा बादल
किसी के आशियाने उजाड़ने का जुनून
कई गोरैयाओं को घायल कर देगा
तब आकंठ डूब जाओगे तुम
रक्त-वर्णिम अथाह नदी में
स्त्री की संवेगों की गठरी जो,
मचल-मचल जा रही
उसके मन की मूक वेदना को
दो पल सहलाने लगो
स्त्री की ये दुनिया
मर -मर कर जीती है
जाने कितनी बार मरती है
खुद को जिन्दा रखने के लिये
(मौलिक व अप्रकाशित रचना )
दीपिका द्विवेदी "दीप "
Comment
संवेदना को यथोचित शब्द मिले हैं.. आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी.
शुभ-शुभ
बहुत बढ़िया आदरणीया दीपिका जी भावपूर्ण अभिव्यक्ति हेतु बधाई !
बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना ... बधाई स्वीकारें
bahut बहुत मर्मस्पर्शी रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीया दीपिका ज़ी
स्त्री की ये दुनिया
मर -मर कर जीती है
जाने कितनी बार मरती है
खुद को जिन्दा रखने के लिये
अत्यंत मार्मिक चित्रण आपका अभिनन्दन !
एक नारी के मन की पीर को भावपूर्ण अभिव्यक्ति हेतु बधाई !
संवेदनायें मुखरित हुई, भावपूर्ण रचना हेतु बधाई...............
coontee mukerji जी आपका बहुत-बहुत आभार मेरे भाव आपके मन तक पहुँचें
मन की आंतरिक पीड़ा से जुझती एक औरत केदिल से निकली आवाज़......बहुत मार्मिक रचना. आपको बधाई है. दीपिका जी.
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