वही रेत
वही घरोंदे
थपथपाते हाथ
सब कुछ वैसा
पर अब लगता
जीवन-सफर
सीलन भरा
शायद इसलिए ...
दिशाओं के पावडों पर
पग रख
समय रथ ने ,
द्रुत गति पकड़ी
और तुम दूर हो गए
पर ये कैसे कहूँ
जबकि हर पल हो पास
मेरी दुआओं में तुम
परछाईयों की तरह
बहुत खुश मैं ,कि
अचानक ...
मेरी पहचान बदलने लगी
कभी मुझसे तुम थे
आज तुम मेरी पहचान बने
यही…
Posted on June 12, 2014 at 6:00pm — 11 Comments
स्त्री की ये दुनिया
बहुत सिमटी हुई
बहुत कोमल
ठीक जैसे आईना
जरा सी खरोंच काफी
उसके स्वरूप को
निमिष भर में वीभत्स करने
और
वो खरोंच धीरे-धीरे बढ़ी
तो
आईना चटक जाए
ये अनुभूत सत्य है ,
उस चटक को कई बार
महसूस किया
आईने के सौ -सौ टुकडो को
अश्रू युक्त सिसकियां सुनाते
उम्मीदों के नीड़ को
थरथरा धूलि धूसरित देख
रोम-रोम काँप उठा था
इसीलिए कहती हूँ
लौट जाओ आवारा बादल
किसी के आशियाने…
Posted on May 3, 2014 at 6:07pm — 9 Comments
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सदस्य कार्यकारिणीमिथिलेश वामनकर said…
आपको यहाँ देखना मेरे लिये भी एक सुखद अनुभव रहा
आपको यहाँ पाकर अति प्रसन्नता हो रही है दीपिका जी ........