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ये लोक तंत्र है
कहने के लिए
हम चुनते हैं 
अपना प्रतिनिधि
वोट देकर 
संविधान द्वारा स्थापित 
प्रक्रिया 
का सम्मान कर कर 
लोकतंत्र की गरिमा 
का 
मन रख,
पर मिलता है हमें
धोखा
सरकार बने
फिर कैसी जनता
कैसा जनतंत्र?
संविधान हमारा 
छत है
धुप, बारिश, पानी
सबसे बचाना इसका 
काम है
पर अब 
लगता है की 
इस छतरी में छेद है.
जिसका पैसा 
उसका कानून
और
फैसले भी उसके 
पक्ष में.
क्या यही अवधारणा थी 
हमारे 
विकसित लोकतंत्र की?
लोकतंत्र अब भीड़ तंत्र है
प्रतिनिधि 
अब नाम के हैं
ईमानदारी पर बैन लगा है
वोट
बाजारों में 
बिकता है
और 
मीडिया सच के इतर
सब कुछ दिखता है
भ्रष्ट नेता-भ्रष्ट प्रजा,
क्या यही 
सेनानियों का सपना था?
खून बहे
सर कटे
मिट गयी रियासतें
लोकतंत्र की पहली किरण फूटी 
और फिर
बलिदान व्यर्थ हुआ 
शहीदों का.
क्या यही उद्देश्य था
स्वतंत्रता संग्राम का?

"मौलिक और अप्रकाशित"

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 30, 2014 at 7:39pm

लोकतंत्र के मौजूदा स्वरुप पर आपकी रचना खुल कर अपनी बात कहती है 

कहीं कहीं टंकण त्रुटियाँ रह गयी हैं उन्हें दुरुस्त कर लें..

प्रस्तुति पर बधाई 

Comment by Satyanarayan Singh on April 22, 2014 at 10:26pm

 सार्थक रचना हेतु . हार्दिक बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 22, 2014 at 5:41pm

आ. अभिशेख भाई , रचना मे आपका दुख सही है , हम ही बिगाड़ने वाले हैं हमे ही सुधरना है भाई ! रचना के लिये बधाइयाँ  ।

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 22, 2014 at 8:26am

अब भौतिक रूप में इस लोक तंत्र में व्यक्ति चुहूँ ओर ठगा सा महसूस करता है | यह सही है | विचारों की इस प्रस्तुति पर 

बधाई 

Comment by savitamishra on April 21, 2014 at 11:23pm

बहुत सुन्दर

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