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कविता -

शरीर में चुभे हुए काँटे

जो शरीर को छलनी करते हैं;

वह टीस 

जो दिल की धड़कन

साँसों को निस्तेज करती है

 

यह तुम्हें आनंद नहीं देगी

प्रेम का कोरा आलाप नहीं यह

वासना में लिपटे शब्दों का राग नहीं

छद्म चिंताओं का दस्तावेज़ नहीं

इसे सुनकर झूमोगे नहीं

 

यह तुम्हें गुदगुदाएगी नहीं

सीधे चोट करेगी दिमाग पर

तड़प उठोगे

यही उद्देश्य है कविता का

 

रात के स्याह-ताल पर 

नृत्य करने वाले नर-पिशाचों के लिए

नहीं होती कविता

 

कविता पैदा करती है

जिंदा लोगों में झुरझुरी

एक सिहरन!

           - बृजेश नीरज 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on April 17, 2014 at 1:34pm

अच्छी कविता है आ0 बृजेश जी, बहुत बधाई!!

वैसे पहले भाग में आपने कविता को एक ही साथ काँटों और टीस, की उपमा दी है, जबकि इनमें एक एक पुल्लिंग है और एक स्त्रीलिंग!! 

सीधे चोट करेगी दिमाग पर!!! - कविता के संज्ञानात्मक उद्देश्य को आपने काफी वरीयता दी है, वैसे भावात्मक पक्ष को भी नजरंदाज नहीं करना चाहिए। 
एक अच्छी कृति के लिए बधाई स्वीकारें। सादर।

Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on April 17, 2014 at 1:03pm

वही कविता है जो छलनी कर दे|

आदरणीय बृजेश "नीरज" जी... इस सच्चाई को बहुत ही सुन्दर तरीके से बताया है आपने ... 

आपको हृदय से शुभकामनाएं अर्पित करता हूँ|

Comment by Mukesh Verma "Chiragh" on April 17, 2014 at 12:32pm

आदरणीय बृजेश जी

इस मंच पर आप जैसे तमाम दोस्तों की हिन्दी पर मज़बूत पकड़ देखकर खुद को सौभाग्यशाली महसूस करता हूँ.  आप लोगों से बहुत कुछ सीख सकूँगा.

जितना समझता हूँ उसके अनुसार, कविता मे विचारों की श्रंखला को कहीं भी आपने टूटने नहीं दिया है. सीधे दिल पर असर करती है आपकी रचना.

बहुत बहुत मुबारकबाद

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 17, 2014 at 11:14am

सुन्दर रचना  के लिए बधाई -

कविता लिख सकता वही जिसकी जुबां से आह निकले,

कविता के भाव भी समझे वही, जो भावुक हो, ज़िंदा दिल हो, मन में भाव फूट पड़े  

Comment by वेदिका on April 17, 2014 at 10:29am
यथार्थ के धरातल पर कही गयी कविता है। लेश मात्र भी झूठापन नहीं.
अनंत शुभकामनाएं

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