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विरोध और गुंडई

इतना दंभ
इतना घमंड
इतनी आतुरता
इतनी व्यग्रता
इतनी उद्दंडता
ठीक नही बन्धु
अभी जियादा दिन नही हुए
गए अंग्रेजों को
भूल गये हाड-मांस के
नंगे-बदन, लंगोटी धारी
उस महामानव को
जिसने ऐसी चलाई थी आंधी
कि उखड गये थे पाँव
उनके जिनके साम्राज्य में
डूबता नही था सूरज.....
मैं जानता हूँ
कि विरोध सहना तुमने सीखा नही
कि विरोध करने और गुंडई करने के बीच
एक बड़ी दीवार है
गुंडई विरोध नही
गुंडई इन्किलाब नही....
मैं जानता हूँ कि गुंडई को
संवैधानिकता का दर्जा देने का
प्रयास तुम्हारा कभी सफल नही होगा...
तुम किस भरम में जीते हो बन्धु....!
-----------------------------------अ न व र सु है ल ----------
(मौलिक अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 7, 2014 at 1:07pm

अपने कथ्य को लिये यह कविता मानो एक भ्रम में जीती हुई लगी. जिन इंगितों के बरक्स यह कविता चलती है वे स्वयं भ्रम के वातावरण का निर्माण करते दीखे हैं. शाब्दिक हुई कई बातें अंतर्निहित भावनाओं के कारण सुहाती अवश्य हैं लेकिन तार्किकता और सार्थकता की कसौटी पर भी वे मान्य हों ऐसा सदा नहीं होता. मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ, कि सूरज जिसके राज्य में नहीं डूबता था के सापेक्ष आपकी अत्यंत सार्थक पंक्ति - गुण्डई इंकिलाब नहीं.. अपनी ताकत को जाया होते देख रही है. क्यों कि वह एक पंक्ति कई विचारधाराओं को साधने चली है. मुझे पूरी तरह विदित है कि आजकी अव्यवस्था और लिप्सा की पराकाष्ठा कई विवादों की जन्मदाता हैं. लेकिन हम एक ही साधै सब सधै से इसे नहीं साध सकते. फिरभी आपकी इस वैचारिक कविता के लिए हार्दिक बधाइयाँ.
सादर

Comment by Arun Sri on March 31, 2014 at 11:41am

कितना ही अच्छा होता जो  ऐसी आदर्शवादी कविताएँ समाज में साकार हो पातीं ! आशावादी ! 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 28, 2014 at 3:42pm

भावनायें मुखर होकर स्थान प्राप्त की है, रचना कुछ अधिक विस्तार पा गई है, कविता अच्छी लगी, बधाई स्वीकार करें ।

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