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चादरें छोटी मिली हैं किश्मतों की-ग़ज़ल

2122    2122    2122  

***
आदमी  को  आदमी  से  बैर  इतना
भर रहा अब खुद में ही वो मैर इतना

*
दुश्मनो  की  बात  करनी व्यर्थ है यूँ
अब  सहोदर  ही  लगे  है गैर इतना

*
चादरें  छोटी  मिली हैं  किश्मतों की
इसलिए भी मत  पसारो  पैर इतना

*
दे रहे  आवाज  हम  हैं  बेखबर  तुम
कर  रहे  हो किस  जहाँ  में सैर  इतना

*
किस तरह आऊं बता तुझ तक अभी मैं
गाव! उलझन  दे  गया  है  नैर  इतना

*
झूठ  होते  हैं  सियासत  के  ये  वादे
इन  भरोसे  मत  हवा  में तैर इतना

मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

Views: 658

Comment

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Comment by विजय मिश्र on March 26, 2014 at 4:18pm
बहुत सुंदर लक्ष्मणजी ,बधाई
Comment by Sarita Bhatia on March 26, 2014 at 10:36am

आदरणीय धामी जी खुबसूरत गजल हुई है वाह 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 25, 2014 at 10:56pm

झूठ  होते  हैं  सियासत  के  ये  वादे
इन  भरोसे  मत  हवा  में तैर इतना.........वाह ! कमाल का शेर

बहुत बहुत बधाई आदरणीय लक्ष्मण जी

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 25, 2014 at 5:39pm

आदरणीय भाई अभिनव अरुण जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 25, 2014 at 5:36pm

झूठ  होते  हैं  सियासत  के  ये  वादे
इन  भरोसे  मत  हवा  में तैर इतना  आदरणीय लक्षमण जी बिलकुल सही बात की तरफ इशारा करता परामर्श देता शेर ..मेरी तरफ से तहे दिल बढाए स्वीकार करें .सादर बधाई के साथ 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 25, 2014 at 5:34pm

आदरणीय शिज़्जू भाई , वो शब्द किस्मत ही है ,टाइपिंग की भूल रह गयी है . रहस्यमय ढंग से भूल की ओर ध्यान दिलाने के लिए हार्दिक धन्यवाद.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 25, 2014 at 4:14pm

आदरणीय लक्ष्मणजी मेरा आशय शब्द किस्मत से है जिसे आपने किश्मत लिखा है

Comment by Abhinav Arun on March 25, 2014 at 2:32pm

अच्छी ग़ज़ल आदरणीय , बधाई ,,और नए अलफ़ाज़ भी सिखा दिए आपने इसके लिए विशेष आभार !!

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 25, 2014 at 8:53am

आदरणीय भाई शिज्जू जी गजल अच्छी लगी , आभार .

मैर = साँप का जहर ,

नैर  = नगर

किस्मत की छोटी चादरों का आसय उसकी मेहरबानियों से है

धन्यवाद


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 24, 2014 at 9:46pm

आदरणीय लक्ष्मणजी ग़ज़ल पे कोशिश अच्छी  है, पर कुछ शब्दों के मतलब समझ नही पाया मसलन मैर, नैर। 

चादरें  छोटी  मिली हैं  किश्मतों की??

सादर,

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