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कहो तुम चाँद से इतना (ग़ज़ल ) - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

1222 1222  1222 1222


हमारी प्यास ले जाओ, जरा सूरज घटाओं तक
समय इतना नहीं बाकी, खबर भेजें हवाओं तक


तुम्हारी कोशिशें थी नित, यहाँ केवल दवाओं तक
हमारा भाग भा खोटा, न जा पाया दुआओं तक


कहाँ से भेजता रब भी, मदद को रहमतें अपनी
पहुचनें ही न पायी जब, सदा मेरी खलाओं तक


कहो तुम चाँद से इतना, सितारों रोशनी मकसद
रहा मत कर सदा इतना, सिमटकर तूँ कलाओं तक


सुना है हो गये हो अब, खुदा तुम भी मुहब्बत के
हमारी हद सहन तक ही, तुम्हारी हद सजाओं तक


खड़ा है वट बिजन में अब, सताता है अकेलापन
पठाओ ये खबर झटपट, खफा बैठी लताओं तक

‘मुसाफिर’ हो सरल जाता, सफर सच में मुहब्बत का
बढ़ा लेते अगर तुम भी , कदम कुछ इन वफाओं तक


मौलिक और अप्रकाशित
23.01.2014

Views: 549

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Comment by Sarita Bhatia on January 23, 2014 at 5:59pm

वाह वाह जिंदाबाद गजल 

सुना है हो गये हो अब, खुदा तुम भी मुहब्बत के
हमारी हद सहन तक ही, तुम्हारी हद सजाओं तक

हार्दिक बधाई 

Comment by Arun Sri on January 23, 2014 at 10:58am

सुन्दर गज़ल हुई है सर जी ! ये अश'आर खास पसंद आए -

सुना है हो गये हो अब, खुदा तुम भी मुहब्बत के
हमारी हद सहन तक ही, तुम्हारी हद सजाओं तक


खड़ा है वट विजन में अब, सताता है अकेलापन
पठाओ ये खबर झटपट, खफा बैठी लताओं तक ............ बहुत ही कोमल शे'र ! वाह !

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