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ग़ज़ल - बज़्म थी तारों की उसमें चाँद का पहरा भी था

२१२२      २१२२      २१२२     २१२

बज़्म थी तारों की उसमें चाँद का पहरा भी था

धूम थी रानाइयों की दिल मेरा तन्हा भी था

 

इक नदी थी नाव भी थी और था मौसम हसीं

साथ तुम थे बाग़ गुल थे इश्क मस्ताना भी था

 

यार की गलियों  गया मैं फिर से लेकर आरज़ू

कुछ पुराने ख्वाब थे हर सिम्त वीराना भी था

 

कैसे - कैसे लोग मिलते हैं यहाँ देखो सही

बात में चीनी घुली थी दिल मगर काला भी था

 

वो अज़ब ही दौर था हर बात पर हँसते थे हम

ये जहाँ  गोया लतीफ़ा मस्त बचकाना भी था

अमित दुबे

मौलिक व अप्रकाशित

(संशोधित)

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Comment

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Comment by coontee mukerji on January 6, 2014 at 5:18pm

कैसे - कैसे लोग मिलते हैं यहाँ देखो सही

बात में चीनी घुली थी दिल मगर कला भी था....वाह क्या बात है.

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 6, 2014 at 5:18pm

आदरणीय अमित भाई , लाजवाब गज़ल कही हैं , सभी शे र सुन्दर लगे ! आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 6, 2014 at 5:00pm

कैसे - कैसे लोग मिलते हैं यहाँ देखो सही

बात में चीनी घुली थी दिल मगर कला ....टंकण की गलती 

 बेहतरीन ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई 

वो अज़ब ही दौर था हर बात पर हँसते थे हम

ज़िन्दगी गोया लतीफ़ा मस्त बचकाना भी था

 यह शेर मुझे बेहद भाया ..ढेरों बधाई के साथ 

Comment by कवि - राज बुन्दॆली on January 6, 2014 at 4:34pm

वाह वाह भाई ,,,, अमित जी ,,,,,बहुत सुन्दर गज़ल हेतु बहुत बहुत बधाई

Comment by Abhinav Arun on January 6, 2014 at 3:49pm
बहुत सुंदर ग़ज़ल श्री अमित जी . प्रवाह और भाव सराहनीय हैं ..बधाई !!

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