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दर्द का सावन ……

.

दर्द का सावन तोड़ के बंधन
नैन गली से बह निकला
मुंह फेर लिया जब अपनों ने
तो बैगानों से कैसा गिला

 
जो बन के मसीहा आया था
वो बुत पत्थर का निकला
मैं जिस को हकीकत समझी थी
वो रातों का सपना निकला

है रिश्ता पुराना कश्ती का
सागर के किनारों से लेकिन
जब दुश्मन लहरें बन जाएँ
तो कश्ती से फिर कैसा गिला


जन्मों जन्मों के वादे थे 
इक दूजे का साथ निभाने के
दो चार कदम चल मुंह फेर लिया
तो राहों से फिर कैसा गिला

 
जिस नजर पर भरोसा था हमको
उस नजर ने जलील-ओ-ख़्वार किया
जिन बाहों में घर सोचा था
वो घर कच्ची मिट्टी का निकला ,

सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by savitamishra on December 20, 2013 at 7:13pm

बहुत सुंदर

Comment by AVINASH S BAGDE on December 20, 2013 at 6:59pm

जब दुश्मन लहरें बन जाएँ 
तो कश्ती से फिर कैसा गिला ...बहुत सुंदर!..सुशील सरना ji..

Comment by Sushil Sarna on December 20, 2013 at 6:39pm

aa.Dr.Gopal Narain Shrivastav jee rachna par aatmeey pratikriya aur chutkee ka haardik aabhaar vaise maze kee baat ki hmain kisee se kaoee dhokha naheen mila aur n hm is shabd ka smarthan karte hain....seedhe saade bande hain seedhee saadee baat karte hain....hardik aabhaar

Comment by Sushil Sarna on December 20, 2013 at 6:35pm

aa.Coontee Mukerji rachna par aapkee madhur prashansa ka haardik aabhaar

Comment by Sushil Sarna on December 20, 2013 at 6:35pm

aa.Meena Pathak jee rachna par aapkee snehil prashansa ka haardik aabhaar

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 20, 2013 at 1:46pm

बहुत खूब सरना जी

आपको पग पग पर कोई न कोई धोका मिला  पर गिला किससे  करे ?

जिससे गिला करना है वह निर्दोष है i आपकी कशमकश  कवि ही समझ सकता है i

आपको बधाई i

Comment by coontee mukerji on December 20, 2013 at 1:28pm

दर्द का सावन तोड़ के बंधन
नैन गली से बह निकला
मुंह फेर लिया जब अपनों ने
तो बैगानों से कैसा गिला..........बहुत सुंदर.दो चार कदम चल मुंह फेर लिया
तो राहों से फिर कैसा गिला
जिस नजर पर भरोसा था हमको
उस नजर ने जलील-ओ-खार किया
जिन बाहों में घर सोचा था
वो घर कच्ची मिट्टी का निकला......अक्सर होता है. शायद यह भी जीवन का एक हसीन पहलू है तभी तो यादें बनती है.सादर

कुंती

Comment by Meena Pathak on December 20, 2013 at 12:27pm

मैं जिस को हकीकत समझी थी
वो रातों का सपना निकला
है रिश्ता पुराना कश्ती का
सागर के किनारों से लेकिन
जब दुश्मन लहरें बन जाएँ
तो कश्ती से फिर कैसा गिला//...................बहुत उम्दा, बहुत बहुत बधाई कुबूल कीजिये आ० सुशील सरन जी

| सादर

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