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'मैं' को ध्येय बनाऊँगी

कल्पना के मुक्त पर से

सीमाओं तक जाऊँगी।

दुश्वारियों से परे, निज

अस्तित्व को मैं पाऊँगी।।

पर हीन पंछी के हृदय

वेदना ने गान गाये।

बह न पाए अश्क जो भी,

वो शब्द सुर ही बन गये।

नभ सिन्धु तक सैर करके

रश्मि मोद चुन लाऊँगी।।

दुनिया के वीराने पथ

दृष्टि नहीं टिकती जिनपर।

संगीत सजायेंगे,उन

राहों से आहें चुनकर।

खुश होंगे सब पत्थर दिल,

गीत वही जब गाऊँगी।।

'मम' में परदर्द' जोड़कर

ऋण-ऋण धन बन जायेंगे।

तुष्ट बनेंगे हम दोनों

भोगी भी सुख पाएंगे।

एक दिन सुख-राशि बनकर

मिल 'अनन्त' में जाऊँगी।।

'मैं' नहीं व्यष्टि का द्योतक

साहित्य बसा है इसमें।

'मैं' की दिशा सही हो तो

संसार सजेगा सचमें।

हर 'मैं' उन्नत होने तक

'मैं को ध्येय बनाउँगी।।

-विन्दु

(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Vindu Babu on December 8, 2013 at 10:57am
आदरणीया गीतिका जी :
//शेष आपके सानिध्य में सीख जाऊँगी//
मेरे सानिध्य में...?? हा हा
इतना भी उपहास मत करिये।
सादर
Comment by बृजेश नीरज on December 8, 2013 at 9:00am

बहुत सुन्दर! आपका गीत विधा पर पहला प्रयास मुग्ध कर रहा है! आपको हार्दिक बधाई! सतत प्रयास कमियों को दूर करने में सहायक होगा!

आदरणीय बागी जी के कहे पर ध्यान दें!

एक प्रश्न आदरणीया गीतिका जी से - क्या वास्तव में कल्पना असीम होती है? क्या रचना में प्रयुक्त 'सीमाओं' शब्द कल्पना की सीमाओं के लिए है, या सामर्थ्य की सीमाओं के लिए, या और किसी ओर इशारा है?

आपके मार्गदर्शन के प्रतीक्षा रहेगी!

Comment by vijay nikore on December 6, 2013 at 9:25am

आदरणीया विन्दु जी:

 

हमारी आत्मा असीम है, इसका अस्तित्व असीम है, पर इस आत्म-बोध के लिए

हमें स्वयं को संयत रखना पड़ता है, स्वयं पर नियंत्रण रखना पड़ता है, हमें कितना

किसी सीमायों के बीच चलना पड़ता है ... आपकी रचना  मेरे मन में यह दुहरा गई।

आपको हार्दिक बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by वेदिका on December 6, 2013 at 8:22am

जी आदरणीया, सहमत हूँ आपसे| आपने मेरे कहे का सम्मान रखा, अभिभूत हूँ आपकी स्नेह दृष्टि की| शेष आपके सानिध्य मे सीख जाऊँगी!

सादर ! 

Comment by Vindu Babu on December 6, 2013 at 8:09am

आदरणीय राम शिरोमणि जी आप दो बार ब्लॉग पर पधारे इसके लिए आपका बारम्बार आभार।

जी,आदरणीय गणेश सर की बात पर शीघ्र ही ध्यान दूंगी।

सादर

Comment by Vindu Babu on December 6, 2013 at 8:04am

आदरणीय जितेन्द्र जी आप भी मेरा सादर आभार स्वीकारें।

आपका बहुत शुक्रिया।

सादर

Comment by Vindu Babu on December 6, 2013 at 8:01am

आदरणीय अरुन भाई आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया पाकर मन खुश हुआ।

भाव पक्ष अच्छा लगा तो रचना सफल हुई ,क्योंकि शिल्प के बारे में तो अभी कुछ आता ही नहीं,सीखना शुरू किया है अभी।

सादर धन्यवाद आपको।

सादर

Comment by Vindu Babu on December 6, 2013 at 7:54am

आदरणीया गीतिका जी आपको रचना बढिया लगी...जानकर बहुत अच्छा लगा।

जी बिलकुल,कल्पना असीम होती है....सहमत हूँ।

प्रश्न शायद 'सीमाओं तक' ने उत्पन्न किया होगा,है न आदरणीया?

भाव ये हैं कि पूर्ण मुक्तता/स्वतन्त्रता/असीमितता प्राप्त हो जाये फिर भी एक 'सीमा' में रहने पर जोर दिया है-मूल्यों की सीमा,संस्कृति की सीमा, कुल मिला कर मानवता की सीमा...अब तो सहमत हैं न आप?

हृदयतल से आपका बहुत आभार बहन।

सादर

Comment by Vindu Babu on December 6, 2013 at 7:42am

आदरणीय भंडारी जी आपने रचना के भावों को सराहा इसके लिए आपका बहुत आभार।

सादर

Comment by Vindu Babu on December 6, 2013 at 7:40am

आदरणीय गोपाल नारायण महोदय आपका उत्साहवर्धन मुझे उर्जा से भर,श्रम के लिए प्रेरित करता है।

स्नेह बनाये रखें आदरणीय,आपका बहुत आभार।

सादर

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