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मैं तारों से बातें करता हूँ

 

जब गहन तिमिर के अवगुंठन में
धरती यह मुँह छिपाती है
मैं तारों से बातें करता हूँ
झिल्ली जब गुनगुनाती है.
(2)
फुटपाथों पर भूखे नंगे
कैसे निश्चिंत हैं सोये हुए
उर उदर की ज्वाला में
जाने क्या सपने बोये हुए.
(3)
दो बूंद दूध का प्यासा शिशु
माँ की आंचल में रोता है
रोते रोते बेहाल अबोध
फिर जाने कैसे सो जाता है!
(4)
क्या उसके भी सपनों में
कोई, सपने लेकर आता है
क्या उसके जीवन का सरगम
यह विश्व चराचर गाता है?
(5)
मेरे सपने तो टूट गये
कुछ बिखर गये अंधेरे में
कुछ तारे बनकर लटक गये
दूर गगन के डेरे में.
(6)
जो बिखर गये वो बिखर गये
मैं अब उन्हें नहीं चुनता
चंद किरणों के धागों से मैं
नये सपनों का जामा बुनता.
(7)
भूखा शिशु सो सकता है
होठों पर मुस्कान लिये
धरती का अवगुंठन हटता
प्राची का वरदान लिये.
(8)
अब मैं नहीं होता निराश
प्रकृति जब गीत सुनाती है
मैं तारों से बातें करता हूँ
झिल्ली जब गुनगुनाती है.
(मौलिक तथा अप्रकाशित)

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Comment by Vindu Babu on December 8, 2013 at 5:27am

आदरणीय आपकी रचना बड़े ही मार्मिक विन्दुओं को उभार रही है,हर एक बंद हृदयस्पर्शी...

सादर बधाई आपकी इस भावपूर्ण रचना के लिए।

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 8, 2013 at 2:36am

जिस शैली में इस अभिव्यक्ति का संवर्धन हुआ है वह शाब्दिकता को गेयता की कसौटी पर इसे संतुष्ट करने के प्रयास में निरत दिखी है. आपकी संवेदना और आपके शब्द-संचयन सदा से सचेत रचनाकर्ता के आंतरिक गुण को निरुपित करते हैं, आदरणीय शरदिन्दुजी. यह रचना उससे अछूती नहीं है.

आपको इस प्रस्तुति हेतु हृदय से बधाई .. .

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 6, 2013 at 2:55am

आदरणीय भाई शिज्जु शकूर और अनंत शर्मा जी, आप दोनों का हार्दिक आभार. सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 6, 2013 at 2:52am

//आपकी यह रचना मेरे लिए पहली है i//

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन जी, सम्भवत: आप 'पहली' नहीं 'पहेली' कहना चाहते हैं. क्यों आप ऐसा सोचते हैं यह मेरे लिये पहेली है. आपने कहा है मेरी रचना में कुंठा है....खुशी होती यदि इस मंतव्य को और स्पष्ट कर देते...अर्थात कहाँ और किस बात की कुंठा! रचना में छुपी मेरी 'अनुभूति' और 'संवेदना' को आपने अनुभव किया, मैं धन्य हो गया, मेरी रचना सफल हुई. हार्दिक आभार आपका. सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 6, 2013 at 2:42am

आदरणीया प्राची जी, मुझे इस बात से बहुत संतोष है कि आप मेरी रचना की गहराई तक गयी हैं. आपने कहा है कि मेरी यह रचना समतुकांत छंद रचना की ओर एक प्रयास है. मैं पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहूंगा कि ऐसा कोई प्रयास मैंने नहीं किया. सहज ढंग से जो भाव मेरे अंदर सुगबुगाते हैं मैं उन्हीं को कभी-कभी व्यक्त कर देता हूँ. इस प्रक्रिया में मेरी अभिव्यक्ति जो आकार लेती है उसका रूप क्या होगा यह मैं स्वयम नहीं जानता. अत: मेरी रचना भविष्य में किधर जाएगी यह कहना लगभग असम्भव है.

अतुकांत और तुकांत कविता के समर्थकों के बीच जो वैचारिक रस्साकसी चलती रहती है मैं उससे बहुत दूर हूँ.मुझे दोनों तरह की रचनाएँ अच्छी लगती हैं बशर्ते रचना में सुंदर भाव हों, कोई संदेश हो, कलात्मक सौंदर्य हो. भाव-विहीन कोई भी रचना पद्य होना तो दूर, गद्य भी नहीं हो सकती. इससे अधिक कुछ भी कहना मेरे लिये अनुचित होगा क्योंकि मुझे इस बारे में ज्ञान ही नहीं है....फिर भी जब कुछ विद्वत्जन कहते हैं कि अतुकांत रचना करने वालों को सात जन्म तक नरक भोगना पड़ेगा तब उनके सोच की दीनता पर हँसी भी आती है और अफ़सोस भी होता है देखकर कि वे कितने संकुचित विचारों वाले हैं.

आपने  वर्तमान रचना में मेरी भावनाओं को ढूँढ़ लिया इसके लिये मैं विशेषरूप से प्रसन्न और आभारी हूँ. आपकी प्रतिक्रिया की मुझे सदैव प्रतीक्षा रहती है क्योंकि उसमें गम्भीरता होती है, तत्व होता है, तथ्य होता है और प्रोत्साहन के अकुंठ संकेत होते हैं.

सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 6, 2013 at 2:10am

आदरणीय आज़ाद और विजय मिश्र जी, हार्दिक आभार.

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 4, 2013 at 1:18pm

आदरणीय सर बहुत ही सुन्दर कविता है भाव ह्रदय को स्पर्श कर गए, इस सुन्दर कृति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 3, 2013 at 11:38pm

आदरणीय शरदिंदु सर बहुत अच्छी कविता हुई है इस ह्रदयस्पर्शी रचना के लिये आपको बधाई

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 3, 2013 at 5:19pm

आदरणीय शारदेन्दु जी

प्रणाम i

     आपकी यह रचना मेरे लिए पहली है i  मुझे याद आता है गोष्ठी में आपने कहा था कि मै अपने को कवि नही समझता i मेरी समझ में हर वह व्यक्ति  कवि है जिसके  अन्दर  संवेदना है i  हमारा साहित्य तो गद्य को भी काव्य मानता है i प्रेमचंद के गोदान को हम एपिक  {महाकाव्य )मानते है i  आदरणीय -- कुंठत्वमायाति गुणः कवीनाम् i साहित्य विद्या श्रम वर्जितेषु i  ------आपकी  रचना में भी कुंठा  झलकती है  i  कविता में जो भाव  है उनमे गहरी अनुभूति और संवेदना है i  मेरी शुभकामनाये i   सादर i


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 3, 2013 at 3:35pm

आदरणीय डॉ० शरदिंदु जी 

आपकी इस प्रस्तुति को मैं आपकी रचनाशीलता में उत्तरोत्तर संवर्धन के क्रम में...अतुकांत और छंदबद्ध के मध्य एक सेतु की तरह देख रही हूँ.. निश्चय ही यह आपका कोइ पहला समतुकांत प्रयास है.. जो मुग्धकारी है, आह्लादकारी है.

आपका संवेदनशील हृदय रात के अन्धकार में तारों से बाते करता है..और बातें भी एक फुटपाथ पर सो जाने वाले भूखे व्यक्ति की..

आपकी संवेदनशीलता  माँ के सूखे आँचल में दुधमुहे भूख से बिलखते बच्चे की वेदना को महसूस करती है .....और एक कदम आगे बढ़ कर किसी निर्बल के सपनों में भी क्या सपने कोइ सजाता है, ऐसा चिंतन प्रस्तुत करती है.

क्या उसके भी सपनों में
कोई, सपने लेकर आता है....................बहुत सुन्दर 
क्या उसके जीवन का सरगम
यह विश्व चराचर गाता है?........................मर्मस्पर्शी 

और सपनों का टूटना बिखरना फिर बुने जाना और फिर स्वप्नों की सारहीनता देख मन का शांत हो ठहर सा जाना और कहना 

अब मैं नहीं होता निराश!

बहुत सुन्दर भाव प्रस्तुत किये हैं आदरणीय शरदिंदु जी ..जिसके लिए बहुत बहुत बधाई. 

आप शीघ्र ही मात्राओं पर सधी हुई समतुकांत प्रस्तुतियां मंच पर हम पाठकों के लिए प्रस्तुत करेंगे...आपका यह प्रयास कुछ इसी ओर संकेत करता सा दीखता है..

वैसे मात्रिकता पर हुआ तनिक सा प्रयास इस प्रस्तुति के शिल्प को भी बेजोड़ गठन दे सकता है... :)

सादर शुभकामनाएं 

कृपया ध्यान दे...

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