रांची का रेलवे स्टेशन.
फुलमनी ने देखा है
पहली बार कुछ इतना बड़ा .
मिटटी के घरों और
मिटटी के गिरिजे वाले गाँव में
इतना बड़ा है केवल जंगल.
जंगल जिसकी गोद में पली है फुलमनी
कुलांचे मारते मुक्त, निर्भीक.
पेड़ों के जंगल से
फुलमनी आ गयी
आदमियों के जंगल में ,
जंगल जो लील जाता है
जहाँ सभ्य समाज का आदमी
घूरता हैं
हिंस्र नज़रों से
सस्ते पोलिस्टर के वस्त्रों को
बेध देने की नियत से ....
फुलमनी बेच दी गयी है
दलाल के हाथों,
जिसने दिया है झांसा
काम का ,
साथ ही देखा है
उसके गुदाज बदन को
फुलमनी दिल्ली में मालिक के यहाँ
करेगी काम,
मालिक तुष्ट करेगा अपने काम
काम से भरेगा
उसका पेट
वह वापस आएगी जंगलों में
जन्म देगी
बिना बाप के नाम वाले बच्चे को.
(फिर कोई दूसरी फूलमनी देखेगी
पहली बार रांची का रेलवे स्टेशन..)
... नीरज कुमार ‘नीर’
पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार , आपकी टिप्पणी ने रचना को सार्थक कर दिया .. आपने बहुत ही सुन्दर विवेचना किया , जिस तरह से आपने पिठौरिया, सरायकेला, रातू अथवा टाटीसिलवे का सन्दर्भ लिया उससे यह स्पष्ट है कि आप भली भांति इलाके के भूगोल से परिचित है और स्थानीय सामजिक समस्यायों की भी गहरी समझ आपकी है.
आपकी एक बात बड़ी अच्छी लगी .. कि कसाई की तरह घूरते हुए क्रॉस पहन लेता है ... क्या आश्चर्य की बात है कि यूरोप या अमेरिका से आया गोरा मिशनरी उन्हें अपना लगता है , रक्षक लगता है जबकि यहाँ का समाज उसे दुश्मन लगता है .. आज निहित स्वार्थ जिसका प्रतिफल अत्यंत क्षणिक रहने वाला है से प्रेरित होकर अपने समाज , देश के लोग काम कर रहे है, परिणाम अत्यंत भयावह होने वाला है .. कुछ भी साबूत नहीं बचेगा ,, ना झूठ फरेब कर कमाई गयी दौलत और ना ही इज्जत , लेकिन कोई समझने को तैयार नहीं.... आपकी टिपण्णी के लिए सादर आभार ..
दिक्कू दलालों की बेहयी नज़रों के सापेक्ष रेजाओं की दशा को जिस शिद्दत से यह कविता उभारती हुई आगे बढ़ती है, उस प्रवाह में काव्य-शिल्प का गौण होना कोई अर्थ नहीं रखता.
कविता का कथ्य जो कुछ साझा करता है वह कई एक घटना का अतिशयोक्ति रूप मात्र नहीं, बल्कि पिठौरिया, सरायकेला, रातू अथवा टाटीसिलवे जैसे चितकबरे ढंग से विकसित तथा उनके आगे गहन भीतर जंगल की कितनी ही फुलमनियों के ताम्बई छौनों के प्रश्न साझा करता है. वे छौने जो अपनी पीली-भफसायी आँखों से हर दिक्कू को कसाई की तरह घूरते हुए तनमनाये क्रॉस पहन लेते हैं. और/या फिर, बन्दूक उठा लेते हैं.
इन भूमिपुत्र-पुत्रियों की नैसर्गिक निश्छलता को तो कब का पीया जा चुका है. अब जब तलछट की बची सिट्ठियों की कड़वाहट भारी पड़ रही है तो हमारे सभ्य समाज में सबका रोआँ-रोआँ अदबदा रहा है.
नीरज भाई, दिल से बारम्बार बधाई ! आपकी कविता अति संवेदनशील मुद्दे पर सार्थक रूप से मुखर है. दिल से शुभकामनाएँ निकल रही हैं.
सादर
आदरणीय राजेश मृदु जी आपका धन्यवाद ..
आ. प्रदीप कुमार शुक्ला जी आपका हार्दिक आभार . मैं आपकी बातों का ख्याल रखने की कोशिश करूँगा ..
आदरणीय लडिवाला जी आपका हार्दिक आभार
विशाल चर्चित जी आपका आभार
आदरणीय सुशिल जोशी जी आपका हार्दिक आभार ..
आपका आभार आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
फुलमनी के माध्यम से उठाया गया प्रश्न सामयिक है, इस हकीकत से दो-चार होते हुए भी करने को कुछ दिखता नहीं तथापि कवि कर्म यही कहता है कि समस्याएं सामने लाई जाएं और आपने वही किया, आपको साधुवाद इस कृत्य के लिए, सादर
behad prabhaavi rachna Neeraj ji ... atukaant aur chhandmukt shilpshaili main bilkul bhi nahin samajh paata ... shabdon ki thodi aur kanjoosi yadi sambhav ho to avashya karein, aisa mujhe padhte samay laga ... aapko badhai is rachna ke liye
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