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ज़िंदगी ग़ुज़र गई - (रवि प्रकाश)

न बिजलियाँ जगा सकीं,
न बदलियाँ रुला सकीं।
अड़ी रहीं उदासियाँ,
न लोरियाँ सुला सकीं।

न यवनिका ज़रा हिली,
न ज़ुल्फ की घटा खिली।
उठे न पैर लाज के,
न रूप की छटा मिली।

जतन किए हज़ार पर,
न चाँद भूमि पे रुका।
अटल रहे सभी शिखर,
न आस्मान ही झुका।

चँवर कभी डुला सके,
न ढाल ही उठा सके।
चढ़ा के देखते रहे,
न तीर ही चला सके।

वहीं कपाट बंद थे,
जहाँ सदा यकीन था।
जिसे कहा था हमसफ़र,
वही तमाशबीन था।

कली-कली बहार की,
पुकार के चली गई।
वसंत का दुकूल भी,
उतार के चली गई।

न रंग था न रूप ही,
न नक़्श,न निशानियाँ।
सँभल सके थे जिस घड़ी,
बची थीं बस कहानियाँ।

बिना पिए न जी सके,
न ज़ख़्म आप सी सके।
समुद्र सी तृषा मगर,
न चार घूँट पी सके।

पड़ाव अनगिनत रहे,
कहीं न कोई अंत था।
तलाशते रहे जिसे,
वही मगर दुरंत था।

क़दम-क़दम सदा मिलीं,
अबूझ सी पहेलियाँ।
वही शिकन निगाह में,
वही खुली हथेलियाँ।

अनाम से मुकाम थे,
जहाँ-जहाँ नज़र गई।
किधर चली थी ज़िंदगी
कहाँ-कहाँ गुज़र गई॥

मौलिक व अप्रकाशित॥

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Comment

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Comment by Sushil.Joshi on October 24, 2013 at 9:35pm

सुंदर धाराप्रवाह...... एक तर्ज़ पर गायी जा सकने वाली प्रस्तुति.....  बहुत खूब आ0 रवि प्रकाश जी.... बधाई...

Comment by Ravi Prakash on October 24, 2013 at 7:44pm
धन्यवाद सारथी जी।आपको रचना अच्छी लगी, जान कर मन को असीम आनंद प्राप्त हुआ। स्नेह बनाए रखें।
Comment by Saarthi Baidyanath on October 24, 2013 at 7:12pm

बेजोड़ प्रवाह...कल कल करती निर्झरणी की तरह ...! पढ़कर मजा आ गया जी ...बहुत सुन्दर :)

Comment by Ravi Prakash on October 24, 2013 at 4:53pm
सराहना तथा उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद। आशीर्वाद बनाए रखें॥
Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 24, 2013 at 3:57pm

आदरणीय रवि जी ..इस सुंदर गीत के लिए हार्दिक बधाई वहीं कपाट बंद थे,
जहाँ सदा यकीन था।
जिसे कहा था हमसफ़र,
वही तमाशबीन था।..जीवन में ऐसा मंजर हमेशा ही आ जाता है ..बेहतरीन ..सादर

Comment by Ravi Prakash on October 24, 2013 at 1:48pm
आप पहली नज़र में सब कुछ ताड़ जाते हैं। मैं आपका संकेत भली-भाँति समझ रहा हूँ। बहरहाल नज़रे-इनायत के लिए शुक़्रगुज़ार हूँ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 24, 2013 at 1:30pm

निग़ाह में शिकन का होना बहुत अच्छा प्रयोग है, भाईजी. आपके बिम्बों और प्रयुक्त अवधारणाओं पर मैं आपको साधुवाद देता हूँ.

मैं तो आपकी प्रस्तुति पर अपनी बात कह रहा हूँ. ऐसी कविताई साठ और उसके उत्तर के दशक में खूब चली थी. अब आप समझ रहे होंगे कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ.

शुभ-शुभ

Comment by Ravi Prakash on October 24, 2013 at 12:01pm
एक प्रयोग के तौर पर लिखा था। ये सोच कर कि अगर माथे पर शिकन हो सकती है तो निगाह में भी हो सकती है। शायद कुछ ज्यादा ही लाक्षणिक प्रयोग हो गया।
Comment by अरुन 'अनन्त' on October 24, 2013 at 11:41am

आदरणीय रवि भाई बहुत ही सुन्दर कविता बनी है प्रवाह भी बेहद सुन्दर है इस हेतु ढेरों बधाई स्वीकारें.

क़दम-क़दम सदा मिलीं,
अबूझ सी पहेलियाँ।
वही शिकन निगाह में,   निगाह में शिकन मुझे अटपटा लगा भाई
वही खुली हथेलियाँ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 24, 2013 at 11:16am

अच्छी कविता हुई है. प्रयासरत रहने के क्रम में हुई यह रचना आने वाले दिनों में अच्छी कविताओ के लिए जगह बनाती दिख रही है.

एक तथ्य अवश्य साझा करना चाहूँगा, कि रचनाकर्म का प्रारम्भ अवश्य प्रभावित होने से होता है, लेकिन उसके सतत होने का कारण आज के परिप्रेक्ष्य को ढालने से बनता है.

इस कविता पर बधाइयाँ लें..

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