For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

बहर-ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ
.
आसनों पे हैं निशाचर जंगलों में राम है।
साधुओं के वेष में शैतान मिलना आम है॥
.
राहुओं को जीवनामृत, नीलकण्ठों को गरल,
अंत में प्रत्येक मंथन का यही अंजाम है।
.
और कितना द्रोपदी के चीर को लंबा करे,
दम बहुत दु:शासनों में, मुश्किलों में श्याम है।
.
क़ातिलों,बहरूपियों,पाखंडियों के हाट में,
ज़िंदगी मेरी-तुम्हारी कौड़ियों के दाम है।
.
गर न खाना मिल सके दो वक़्त,आदत डाल दे,
चार दिन है भुखमरी फिर क़ब्र में आराम है।
.
मसखरों के हाथ में जनतंत्र की हैं चाबियाँ,
बत्तियाँ सारी बुझा के सो रही अव्वाम है।
.
धूप की मैली-कुचैली बस्तियों के उस तरफ़,
एक मैं हूँ,एक तू है और ख़ाली शाम है।
.
किस तरफ़ जाए 'रवी' किसको बनाए रहनुमा,
हर नज़र नाआशना है,हर डगर बदनाम है॥
.
मौलिक व अप्रकाशित॥

Views: 663

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Ravi Prakash on November 10, 2013 at 6:47am
धन्यवाद!
Comment by annapurna bajpai on November 9, 2013 at 2:30pm

वाह !!! अति सुंदर गजल हेतु बहुत बधाई आपको । 

Comment by Sushil.Joshi on November 9, 2013 at 12:40pm

सुंदर भावों से सुसज्जित इस प्रस्तुति हेतु बहुत बहुत बधाई आ0 रवि प्रकाश जी.....

Comment by Ravi Prakash on November 9, 2013 at 9:57am
आ॰ सौरभ जी,मैं धन्यवादी हूँ कि आपने इस रचना को इतना समय दिया और इतना सूक्ष्म विवेचन किया। मैं आपके संकेत भली भाँति समझ गया। पुनः धन्यवाद।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 8, 2013 at 11:23pm

भाई रविप्रकाश जी, आपकी इस ग़ज़ल की आत्मा बहुत शुद्ध है और उसी कारण इसके दो-एक शेर अपने प्रतीकों के कारण उत्कृष्ट की श्रेणी में रखे जा सकते हैं. लेकिन मैं उसी आत्मा और प्रयुक्त होने वाले प्रतीकों की बिना पर आपसे एक महत्त्वपूर्ण तथ्य साझा करना चाहता हूँ. वो ये कि राम की संज्ञा निशाचरों के समानान्तर ’है’ के साथ उचित नहीं लगती, बल्कि ’हैं’ उचित होगा. यही कुछ श्याम के साथ होगा जहाँ दुःशासनों का प्रयोग हुआ है. यह तो हुई है एक बात.

दूसरे,  ज़िंदगी मेरी-तुम्हारी कौड़ियों के दाम है   में भी वाक्य बहुवचन का होगा नकि एकवचन का जैसा कि प्रयुक्त हुआ है.
आशा है, इन तथ्यों पर ध्यान देंगे.  वैसे आपका प्रयास बहुत संयत हुआ है.
बधाई तथा शुभकामनाएँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 8, 2013 at 7:36pm

आदरणीय रविप्रकाश जी 

शानदार ग़ज़ल हुई है, सभी अशआर पसंद आये..बहुत बहुत बधाई 

Comment by Ravi Prakash on November 7, 2013 at 5:01pm
ज़र्रानवाज़ी के लिए शुक्रिया!
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 7, 2013 at 3:30pm

Har nazar to ashna ha Aap kyun badnam hain. Excellent.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 7, 2013 at 2:27pm

आदरणीय ,रवि भाई  , एक अच्छी  गज़ल के लिये आपको बहुत बधाई !!!!

राहुओं को जीवनामृत, नीलकण्ठों को गरल,
अंत में प्रत्येक मंथन का यही अंजाम है। ------- वाह वा !!!!!

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 7, 2013 at 1:17pm

वाह रवि भाई वाह एक बहुत ही सुन्दर लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने सभी के सभी अशआर पसंद आये दिली दाद कुबूल फरमाएं.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"सीख (लघुकथा): 25 जुलाई, 2025 आज फ़िर कबूतरों के जोड़ों ने मेरा दिल दुखाया। मेरा ही नहीं, उन…"
19 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"स्वागतम"
yesterday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

अस्थिपिंजर (लघुकविता)

लूटकर लोथड़े माँस के पीकर बूॅंद - बूॅंद रक्त डकारकर कतरा - कतरा मज्जाजब जानवर मना रहे होंगे…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार , आपके पुनः आगमन की प्रतीक्षा में हूँ "
Tuesday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय लक्ष्मण भाई ग़ज़ल की सराहना  के लिए आपका हार्दिक आभार "
Tuesday
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"धन्यवाद आदरणीय "
Sunday
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"धन्यवाद आदरणीय "
Sunday
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय कपूर साहब नमस्कार आपका शुक्रगुज़ार हूँ आपने वक़्त दिया यथा शीघ्र आवश्यक सुधार करता हूँ…"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय आज़ी तमाम जी, बहुत सुन्दर ग़ज़ल है आपकी। इतनी सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, ​ग़ज़ल का प्रयास बहुत अच्छा है। कुछ शेर अच्छे लगे। बधई स्वीकार करें।"
Sunday
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"सहृदय शुक्रिया ज़र्रा नवाज़ी का आदरणीय धामी सर"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, ​आपकी टिप्पणी एवं प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service