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ग़ज़ल: भेषभूषा मान मर्यादा ख़तम

बह्र : रमल मुसद्दस महजूफ

वज्न : 2122, 2122, 212

........................................

सभ्यता सम्मान अपनापन गया,

आदमी शैतान जबसे बन गया,

भेषभूषा मान मर्यादा ख़तम,

ज्ञान गुण आदर कि अनुशासन गया,

रोग से हो ग्रस्त विचलित भूख से,

मौत के काँधे पे चढ़ निर्धन गया,

आसमां की चाह जबसे हो गई,

चैन का हाथो से छुट दामन गया,

परवरिश का जबसे बदला ढंग है,

खिलखिलाता फूल सा बचपन गया,

बाप को बेटा नसीहत दे कहे,

मैं हुआ बालिग जहाँ शासन गया,

सौ बरस की उम्र होती थी कभी,

आजकल तो साठ में जीवन गया,

देश की तस्वीर बदली इस कदर,

जुर्म का सीना उभर के तन गया..

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 17, 2013 at 7:05pm

आसमां की चाह जबसे हो गई,
चैन का हाथो से छुट दामन गया,... छुट ?  या छूट ?

बह्र तक का अच्छा अभ्यास हो चुका है. भाईजी, आगे कहन पर ध्यान दें हम.  अब वाकई ग़ज़ल कहना शुरु करें.
प्रतीक्षा रहेगी.
शुभेच्छाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 16, 2013 at 12:12pm

परवरिश का जबसे बदला ढंग है,

खिलखिलाता फूल सा बचपन गया,----बहुत सुन्दर शानदार शेर 

 

रोग से हो ग्रस्त विचलित भूख से,

मौत के काँधे पे चढ़ निर्धन गया,-----एक सार्थक शेर वाह 

जिन शेरो पर आदरणीय वीनस जी ने चर्चा की है उनमे थोडा सा फेर बदल करके दुरुस्त/बेहतर भाव कर सकते हैं ,शिल्प ,बहर एक दम सही है

बहुत बहुत बधाई आपको प्रिय अरुन अनंत  

 

Comment by बृजेश नीरज on October 15, 2013 at 10:43pm

भाई जी अच्छा प्रयास है! इस अभिव्यक्ति पर आपको हार्दिक बधाई!

लगता है आप इधर व्यस्त अधिक हैं.

Comment by विजय मिश्र on October 15, 2013 at 7:11pm
"परवरिश का जबसे बदला ढंग है,
खिलखिलाता फूल सा बचपन गया|" - अरुनजी ! पूरी की पूरी गज़ल माएने के लिहाज से चुस्त लगी और ये ऊपर का बंद तो दिल को भा ही गया | ढेर सारी बधाईयाँ .
Comment by विजय मिश्र on October 15, 2013 at 7:10pm
"परवरिश का जबसे बदला ढंग है,
खिलखिलाता फूल सा बचपन गया|" - अरुनजी ! पूरी की पूरी गज़ल माएने के लिहाज से लगी और ये ऊपर का बंद तो दिल को भा गया | ढेर सारी बधाईयाँ ....
Comment by mrs manjari pandey on October 15, 2013 at 1:25pm

   Arui sharma jee bilkul sahee farmaayaa aaone. mai aapse shat pratishat ittefaq rakhti hoon. sunder gazal ke liye badehai kubulen

Comment by Meena Pathak on October 15, 2013 at 12:28pm

बहुत बहुत दाद कुबूल कीजिये आदरणीय अरुन जी .. बहुत सुन्दर गज़ल 

Comment by वेदिका on October 15, 2013 at 11:46am

रोग से हो ग्रस्त विचलित भूख से,

मौत के काँधे पे चढ़ निर्धन गया,....वाह क्या दमदार शेअर हुआ!

 बधाई आदरणीय अरुण अनंत जी!

Comment by Sushil.Joshi on October 15, 2013 at 5:39am

आदरणीय अरुन भाई.... गज़ल के शिल्प का ज्ञान मुझे नहीं है किंतु भावों के लिए बधाई स्वीकारें.....

Comment by वीनस केसरी on October 15, 2013 at 3:40am

 

भेषभूषा मान मर्यादा ख़तम,

ज्ञान गुण आदर कि अनुशासन गया,.... इसमें कि शब्द की क्या जरूरत थी ? रखते तो बेहतर न होता ?


बाप को बेटा नसीहत दे कहे,

मैं हुआ बालिग जहाँ शासन गया,,,,, इस शेर में कहा क्या गया है ?


सौ बरस की उम्र होती थी कभी,

आजकल तो साठ में जीवन गया, .... सपाट बयान है ... इसमें तगज्जुल कहाँ है भाई ???

देश की तस्वीर बदली इस कदर,

जुर्म का सीना उभर के तन गया.. .......... सीना उभर के तन जाना,,, ये कैसी बेहूदा उपमा है भाई

अरुण भाई आपने इससे बहुत अच्छी ग़ज़लें कही हैं और यह मंच इस बात का साक्षी है ...
हमको लिखना खूब चाहिए मगर सब कुछ साझा करने से बचना चाहिए ...

ये ऐसी रचना है जो आपको लिखनी थी मगर साझा नहीं करनी थी ....

बहुत हल्की ग़ज़ल है

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