सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था
जब तक था लड़ता रहा
कभी गर्म लू के थपेड़ों को
बरसात, खून जमाने वाली
ठंड को सहता रहा
सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था
उसकी शाखों को काट- काट कर
लोगों ने घरों के दरवाज़े बनाये
खिड़कियाँ बनाई खुद को छुपाने के लिये
जुल्म की आग में वो जलता रहा
सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था
उम्र कोई उसकी कम न कर सका
जब तक जीना था वो जिया
जब तक हरा भरा जवान था
हवा व छांव दुनिया को दिया
युग- युग की कहानी कहता रहा
सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था
-मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय रविकर सर आपने बड़े ही खूबसूरत अंदाज़ में तारीफ़ की है आपका तहे दिल से शुक्रिया, आपकी इस कुंडलिया छंद को मैने सहेज के रख लिया है, न सिर्फ अपने कम्प्यूटर में बल्कि अपने दिल में भी
सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था
जब तक था लड़ता रहा
अति सुंदर भाव शिज्जू शकूर जी बधाई स्वीकारें
बहुत बढ़िया आदरणीय-
सादर-
पल्ले चौखट चौकियाँ, पशोपेश में देश |
जला अन्तत: पूर्णत: वृक्ष हुआ नि:शेष |
वृक्ष हुआ नि:शेष, बड़े फल-फूल खिलाये |
दे आराम विशेष, जीव जो नीचे आये |
खेलकूद त्यौहार, शादियाँ इसके तल्ले |
मिटता क्यूँ अस्तित्व, पड़े नहिं रविकर पल्ले ||
उसकी शाखों को काट- काट कर
लोगों ने घरों के दरवाज़े बनाये
खिड़कियाँ बनाई खुद को छुपाने के लिये
जुल्म की आग में वो जलता रहा
सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था..............अति सुंदर व् गहरे भाव
बेहद सुंदर रचना , बहुत बहुत बधाई आदरणीय शिज्जू जी
बहुत सुन्दर भाव ...बेहतरीन
वाह वाह !! शिज्जू भाई , बहुत अच्छी बात कही , क्या बात है !! ये रचना अतुकांत मे आयेगी क्या ?
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