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अकथ्य व्यथा

 

अरक्षित अंतरित भावनाओं को अगोरती,

क्षुब्ध   अनासक्त   अनुभवों  से  अनुबध्द,

फूलों   के   हार-सी  सुकुमार

मेरी कविता, तुम इतनी उदास क्यूँ हो ?

 

पँक्ति-पँक्ति  में   संतप्त,  कुछ  टटोलती,

विग्रहित   शिशु-सी   रुआँसी,

बगल में ज्यों टूटे खिलोने-से

किसी  पुराने रिश्ते को थामे,

मेरे   क्षत-विक्षत  शब्दों में  तुम 

इतनी  जागती  रातों  में  क्या  ढूँढती हो ?

 

अथाह सागर के दूरतम छोर तक जा कर

प्यासी,  तुम   खाली   हाथ  लौट  आती  हो,

कुछ   कहते-कहते  अकस्मात, भावशून्य,

नि:शब्द हो जाती हो, और उसी क्षण

अरगनी पर लटक रहे गीले कपड़े-सी

तुम्हारी असह पीड़ा बूँद-बूँद   टपकती

मुझसे सही नहीं जाती, और मैं ....

तुम्हारे   संग इन शब्दों मे रो देता हूँ ।

 

तुम्हारी  अकथ्य  व्यथा  में  निहित  पीड़ा

निरन्तर निचुड़ने के बाद भी

बहुत बाकी रह जाती है ।

विरहिणी  के  वियोग-सी  तुम्हारी  पुकार

मैं सुनता हूँ असहाय, छलनी हो जाता हूँ,

अनिर्णीत शब्द, अभिव्यक्ति विहीन

निढाल गिर जाते हैं

और मैं उठा कर उनको बटोर नहीं पाता ।

 

हवाओं की अदम्य गति

उड़ती रेत की तरह

गिरे अबोध शब्दों को कहाँ से कहाँ

पटक-पटक आती है

और तुम तड़पती हो उस माँ की तरह

जो जलती आग की लपटों में एक संग

कितने बच्चों को खो देती है,

और मैं इस पर भी मूर्ख-सा खड़ा,स्तब्ध

पूछ बैठता हूँ तुमसे नादान-सा ...

"मेरी कविता, तुम इतनी उदास क्यूँ हो ? "

--------

-- विजय निकोर                                                          

(मौलिक व अप्रकाशित)            

 

                   

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Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on August 24, 2013 at 12:33pm

पँक्ति-पँक्ति  में   संतप्त,  कुछ  टटोलती,

विग्रहित   शिशु-सी   रुआँसी,

बगल में ज्यों टूटे खिलोने-से

किसी  पुराने रिश्ते को थामे,

मेरे   क्षत-विक्षत  शब्दों में  तुम 

इतनी  जागती  रातों  में  क्या  ढूँढती हो ?

वाह उम्दा पंक्तियाँ और बेहतरीन रचना आदरणीय |

Comment by बृजेश नीरज on August 24, 2013 at 12:11pm

मन की व्यथा, कविता का मर्म, को इससे बेहतर क्या शब्द मिल सकते हैं। निःशब्द कर दिया!
आपको नमन!

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 24, 2013 at 12:05pm

अहा अहा !!!! निःशब्द कर दिया आपने आदरणीय कथ्य शिल्प भाव बेहद गहन हैं कई बार पढ़ता रहा, बेहद असरदार प्रस्तुति आदरणीय हृदयतल से भूरि भूरि बधाई स्वीकारें.

Comment by annapurna bajpai on August 23, 2013 at 10:31pm

आदरणीय विजय जी बहुत बढ़िया भाव पूर्ण कविता के लिए आपको हार्दिक बधाई ।

Comment by विजय मिश्र on August 23, 2013 at 3:53pm
"तुम्हारी अकथ्य व्यथा में निहित पीड़ा
निरन्तर निचुड़ने के बाद भी
बहुत बाकी रह जाती है ।
विरहिणी के वियोग-सी तुम्हारी पुकार
मैं सुनता हूँ असहाय, छलनी हो जाता हूँ,.." -- विजयजी ! गहन चिंतन के अतिरेक की भावाभिव्यक्ति . अतीव सुंदर .साधुवाद .

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 23, 2013 at 9:47am
आंतरिक पीड़ा का बहुत सजीव चित्रण किये , भाई विजय निकोरे जी !!

वाह क्या कहने !!! बहुत बधाई !!
Comment by ram shiromani pathak on August 22, 2013 at 9:37pm

हवाओं की अदम्य गति

उड़ती रेत की तरह

गिरे अबोध शब्दों को कहाँ से कहाँ

पटक-पटक आती है

और तुम तड़पती हो उस माँ की तरह

जो जलती आग की लपटों में एक संग

कितने बच्चों को खो देती है,

और मैं इस पर भी मूर्ख-सा खड़ा,स्तब्ध

पूछ बैठता हूँ तुमसे नादान-सा ...///////////ह्रदय स्पर्शी रचना  

आदरणीय विजय निकोर जी  बहुत ही सुन्दर  //हृदय से बधाई आपको //सादर 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 22, 2013 at 7:55pm

व्यथा क्या होती है? "  व्यथा का सजीव चित्रण प्रस्तुत करती हुयी रचना पर, हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय निकोर जी

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on August 22, 2013 at 5:55pm

तुम्हारी  अकथ्य  व्यथा  में  निहित  पीड़ा

निरन्तर निचुड़ने के बाद भी

बहुत बाकी रह जाती है ।

विरहिणी  के  वियोग-सी  तुम्हारी  पुकार

मैं सुनता हूँ असहाय, छलनी हो जाता हूँ,

अनिर्णीत शब्द, अभिव्यक्ति विहीन

निढाल गिर जाते हैं

और मैं उठा कर उनको बटोर नहीं पाता । // आदरणीय विजय निकोर सर, आपकी कविता ने वाकई गहन अंतर्प्रेक्षण को मजबूर किया। आपने कविमन के बंजारेपन और सृजन की प्रक्रिया को चित्रित करके अंतर्प्रेक्षण का जो प्रक्रियात्मक चित्रण किया है, वह अत्यंत सुन्दर है। हार्दिक बधाई

Comment by Aditya Kumar on August 22, 2013 at 5:43pm

हार्दिक बधाई आदरणीय श्री  विजय निकोर जी।   

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