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बेदर्द मौसम में

तुम्हें रोने की आज़ादी
तुम्हें मिल जाएंगे कंधे
तुम्हें घुट-घुट के जीने का
मुद्दत से तजुर्बा है


तुम्हें खामोश रहकर
बात करना अच्छा आता है
गमों का बोझ आ जाए तो
तुम गाते-गुनगुनाते हो
तुम्हारे गीत सुनकर वो
हिलाते सिर देते दाद...

इन्ही आदत के चलते ये
ज़माना बस तुम्हारा है
कि तुम जी लोगे इसी तरह
ऎसे बेदर्द मौसम में
ऎसे बेशर्म लोगों में.....


इसी तरह की मिट्टी से
बने लोगों की खासखास
ज़रूरत हुक्मरां को है
ज़रूरत अफसरों को है

हमारे जैसे ज़िद्दी-जट्ट
हुरमुठ और चरेरों को
भला कब तक सहे कोई
भला क्योंकर मुआफी दे....

(मौलिक अप्रकाशित्)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 19, 2013 at 10:01am

अति सुन्दर रचना , भाई अनवर जी !! आज की सामाजिक सच्चाई का बहु त अच्छा चित्रण ! अन्दर तक असर करने वाली !! वाह वाह !!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2013 at 6:20am

आदरणीय अनवर साहब, आप चुप्प कर देते हैं .. ऐसा कम हुआ है कि आपकी किसी रचना से मैं गुजरा और वही रह पाया. आपकी रचनाएँ झन्ना देती हैं.

अपने ग़म को ग़म न समझने वाले और अपनी रौ में बहने वाले निर्पेक्ष और भोले लोग इस शातिर, भ्रष्ट और मतलबी तंत्र की आवश्यकता हैं. ऐसों की  ही ओट मे यह तंत्र हिरण्याक्षों और हिरण्यकश्यपों की ज्यादतियाँ छिपाता है. उसे अपेक्षा करते लोग नहीं सुहाते.  संवेदनशील कवि की आह नहीं सुहायेगी. 

इस तल्ख़ सच्चाई को अभिव्यक्ति देने के लिए सादर बधाई.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 8, 2013 at 11:24am

अफसरों और अधीनस्थों के सम्बन्ध आजकल जिस तार से जुड़े होते दीखते हैं, उसे खूब पकड़ा है आपने..

और अंतिम बंद में तुलनात्मकता बहुत पसंद आई... 

शुभकामनाएँ 

Comment by Abhinav Arun on August 5, 2013 at 5:39am

जनाब अनवर साहिब , भाव बेहतरीन तौर पे निखरे हैं बधाई !!

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 4, 2013 at 7:33pm

इसी तरह की मिट्टी से 
बने लोगों की खासखास
ज़रूरत हुक्मरां को है
ज़रूरत अफसरों को है

हमारे जैसे ज़िद्दी-जट्ट 
हुरमुठ और चरेरों को 
भला कब तक सहे कोई 
भला क्योंकर मुआफी दे....सच को रचना के माध्यम से प्रस्तुत करती रचना के लिए बधाई श्री अनवर सुहैल भाई 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 4, 2013 at 7:30pm

आदरणीय अनवर साहब, बहुत खुबसुरत रचना पर हार्दिक बधाई

Comment by बृजेश नीरज on August 4, 2013 at 6:30pm

बहुत ही सुन्दर! आपके लेखन की धार इतनी तीखी है कि सीधे चोट करती है। आपको हार्दिक बधाई इस रचना पर!

Comment by MAHIMA SHREE on August 4, 2013 at 2:11pm

इसी तरह की मिट्टी से
बने लोगों की खासखास
ज़रूरत हुक्मरां को है
ज़रूरत अफसरों को है...

गलीज हालातो से समझौता कर जीने वालो की आपकी अच्छी लगायी ..बहुत -२ बधाई


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 3, 2013 at 8:35pm

मोहतरम जनाब अनवर सुहैल साहब  

पेश की गई रचना को कई दफे पढ़ा...पहले और दूसरे पैराग्राफ तक तो सब ठीक लगा..लगा कि आप जो इंसान ग़मों और ख़ामोशी के लम्हों में भी गीतों की बात करे उन्हें गुनगुनाये आप उसकी तारीफ़ में लिख रहे हैं ..पर अचानक ही ऐसा क्या हो जाता है कि वही इंसान बेशर्म हो जाता है उसकी मिटटी खराब हो जाती है........आज के दौर के बेशर्म अफसर और हुक्मराओं को वो रास आने लगता है|

शायद मैं कविता के मर्म को समझ नहीं पा रहा हूँ ......आपसे व्याख्या की उम्मीद रखता हूँ|

सादर|

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