For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल - 'आवारगी के सफ़र में थके-टूटे ये बदन भी'

               ग़ज़ल

 

 

आवारगी के सफ़र में थके-टूटे ये बदन भी,

मंजिलें तो क्या मिलीं, खो गए मसकन भी।          मसकन - रिहायाशें, वास

सूरज के माथे पे उभरी देखी एक शिकन  भी,

सहरा में उतरे जब कुछ  मोम के बदन भी।           सहरा - रेगिस्तान

ज़िस्म के अंधे कुँयें से कायनात में निकल,

ज़ेहन नाम का रखा है इसमें एक रौज़न भी।          रौज़न - रौशनदान

वो फ़कीर मुतमईन था एक रिदा ही पाकर,

दामन है, ओढ़न-बिछावन है और कफ़न भी।          मुतमईन - सन्तुष्ट,   रिदा - चादर  

मैं जिंदगी को काँटों भरी ख़िज़ां कैसे कह दूँ,

मिस्ले-बहार कभी मिला था एक गुलबदन भी।

ख़्बाब नींदों की खुशलिबासी ही तो हैं प्यारे,

सुबह इन्हें उतार फैंक, हर रात ये पहन भी।

अपने लिये ढूँढ रहे थे नए अक्स, नये चेहरे,  

परछाईयों  के शह्र में गवां आये वो बदन भी।

हाथों के फ़ूल नहीं, छालों भरे तलवे भी देख,

मेरे  सफ़र  में आये हैं सहरा भी, चमन भी।

उसका किरदार यूं मेरे लम्हों पर हावी रहा,

मेरी बीवी मुझे लगी माँ भी कहीं बहन भी।

एक बार बेलिबास किया गया था शह्र में मुझे,

मेरा नंग ढंक न पाये फिर कभी पैराहन भी।           पैराहन - वस्त्र 

वक़्त ने हादसों के खंज़र जिधर भी फैंके,

कहीं रहा, ज़द में आ ही गया मेरा बदन भी।          

कहीं अपनी हिज़रत उम्र भर की ना हो 'सानी'

दामन में ले ही चलो थोडी सी गर्दे-वतन भी।           हिज़रत - परवास 

 

 

मौलिक और अप्रकाशित , [  'सानी' करतारपुरी ]

Views: 687

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by सानी करतारपुरी on July 4, 2013 at 10:52pm

आदरणीय बृजेश जी, बेह्र, अरूज़  की बेइल्मी की बजह से बेह्र, अरूज़ के  उस्तादों का हुआ तंज़ शायद आप नहीं समझे जोकि जायज़ भी है .. मुझे अपनी कम-इल्मी के लिए नमोशी है लेकिन अपने अशआर का फख्र है .. आपको ग़ज़ल पसंद आई, मुझे ख़ुशी है .. शुक्रिया 

Comment by बृजेश नीरज on July 4, 2013 at 8:19pm

आदरणीय आपकी रचना को पसंद तो सबने किया है।

Comment by सानी करतारपुरी on July 4, 2013 at 8:01pm

अशआर पसंद और नापसंद करने वाले सभी का शुक्रिया दोस्तों, दोनों ओर  से मेरी होंसला-अफजाई हुई है ..

Comment by वीनस केसरी on July 3, 2013 at 11:46pm

जनाब,
लहजा रवायती ग़ज़ल से वाबस्ता कर ही चुके हैं तो ग़ज़ल की रवायत को भी निभाया होता ...
बहर की नाजुक डोर हर मिसरे में अनमेल मोती पिरोये हुए है ...
ऐसा किया होता तो ग़ज़ल शायद पहले कहीं और पढ़ने को मिली होती ...

Comment by बृजेश नीरज on July 3, 2013 at 9:33pm

आदरणीय अच्छा प्रयास है। बधाई! यदि रचना के साथ बहर का भी जिक्र होता तो सबको आसानी होती।
सादर!

Comment by Priyanka singh on July 3, 2013 at 7:33pm

मैं जिंदगी को काँटों भरी ख़िज़ां कैसे कह दूँ,

मिस्ले-बहार कभी मिला था एक गुलबदन भी।

हाथों के फ़ूल नहीं, छालों भरे तलवे भी देख,

मेरे  सफ़र  में आये हैं सहरा भी, चमन भी।

उसका किरदार यूं मेरे लम्हों पर हावी रहा,

मेरी बीवी मुझे लगी माँ भी कहीं बहन भी।..........खूब  बधाई......

Comment by Sumit Naithani on July 3, 2013 at 3:10pm

sunder

Comment by सानी करतारपुरी on July 2, 2013 at 7:25pm

आदरणीय जितेंदर जी,  आपके शब्दों के लिए बहुत आभारी हूँ .. शुक्रिया 

Comment by सानी करतारपुरी on July 2, 2013 at 7:22pm

आदरणीया राज जी , हौंसला-अफजाई के लिए बहुत शुक्रिया .. आपकी दाद मेरा इनाम है… 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 2, 2013 at 4:17pm
"आवारगी के सफ़र में थके-टूटे येबदन भी,

मंजिलें तो क्या मिलीं, खो गए मसकन भी".......वहुत खूब ! आदरणीय...सानी जी, बधाई

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"स्वागतम "
19 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on नाथ सोनांचली's blog post कविता (गीत) : नाथ सोनांचली
"आ. भाई नाथ सोनांचली जी, सादर अभिवादन। अच्छा गीत हुआ है। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।"ओबीओ…See More
Sunday
Nilesh Shevgaonkar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"धन्यवाद सर, आप आते हैं तो उत्साह दोगुना हो जाता है।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और सुझाव के लिए धन्यवाद।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"आ. रिचा जी, अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए धन्यवाद।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। आपकी उपस्थिति और स्नेह पा गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ । आपके अनुमोदन…"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"आ. रिचा जी अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई। "
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुइ है। हार्दिक बधाई।"
Saturday
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"शुक्रिया ऋचा जी। बेशक़ अमित जी की सलाह उपयोगी होती है।"
Saturday
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"बहुत शुक्रिया अमित भाई। वाक़ई बहुत मेहनत और वक़्त लगाते हो आप हर ग़ज़ल पर। आप का प्रयास और निश्चय…"
Saturday
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"बहुत शुक्रिया लक्ष्मण भाई।"
Saturday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service