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ग़ज़ल : जब नयन गुनगुना हो गया

जब नयन गुनगुना हो गया

तो सृजन गुनगुना हो गया

 

रूप की धूप में बैठकर

ये बदन गुनगुना हो गया

 

तेरी यादों की भट्ठी जली

मेरा मन गुनगुना हो गया

 

उसने डुबकी लगाई कहीं

आचमन गुनगुना हो गया

 

नर्म होंठों पे जुंबिश हुई

हरिभजन गुनगुना हो गया

 

थामकर हाथ हम चल पड़े

पर्यटन गुनगुना हो गया

 

उनके आने की आहट हुई

अंजुमन गुनगुना हो गया

 

साँस ने साँस को आग दी

और मिलन गुनगुना हो गया

--------------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on May 26, 2013 at 7:57am

साँस ने साँस को आग दी

और मिलन गुनगुना हो गया.......वाह! 

आदरणीय धर्मेन्द्र जी सादर, बहुत सुन्दर गजल आपसी समझ से सफ़र आसान  होने का संदेश देती है. सादर बधाई स्वीकारें.

Comment by वेदिका on May 22, 2013 at 10:30pm

सुंदर अशआर समेटे हुए गुनगुनी गजल पे ढेरों दाद कुबुलिये आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार जी 

Comment by अरुन 'अनन्त' on May 22, 2013 at 10:24pm

वाह आदरणीया वाह छोटी बहर में लाजवाब ग़ज़ल कह दी आपने, सभी के सभी अशआर बेहद सुन्दर हैं. दिली दाद कुबूल फरमाएं.

बांच के छोटी बहर की ग़ज़ल,

आज अरुन गुनगुना हो गया,

Comment by बृजेश नीरज on May 22, 2013 at 9:31pm

छोटी बहर में अच्छी और रूचिकर! बधाई आपको!

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