For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

सरकारी नौकरी

 

 

काश दो दिन दफ़्तर लगता ,

होती छुट्टी पाँच दिन,

खाते खेलते,सोते घर में

मौज मनाते पाँच दिन ।

 

बच्चे रोते भाग्य पर,

पर पत्नी खुश हो जाती,

हाथ बटाएगा काम में,

यह सोच मंद मुस्कुराती।

 

आ जाती तनख्वाह एक को,

बन जाता काम महीने का,

तान रज़ाई ,लेता खर्राटा,

जय बोलता सरकार की ।

 

जाता दफ़्तर सोम- मंगल,

बाँकी दिन अपने हो जाते,

तेल मालिश करता घर पर,

वोट देता सरकार को ।

 

समय काटता दिन भर घर पर,

ऑफिस का काम भी कर देता ,

त्याग दिखाता जीवन में मैं,

मुफ्त की तनख्वाह न खाता ।

 

कब आएगा समय ऐसा,

इसी का इंतजार है,

आ जाए अगर मुद्दा चुनाव में,

2014 अमर हो जाता ।

 

 

 

 

स्वस्थ होगा मानव तभी,

भरपूर नीद जब सोयेगा,

काम के बोझ से मुक्त होकर,

खुशहाल जीवन, जब जिएगा ।

 

बाबा ऐसे ही करते थे,

दो महीने में दफ़्तर जाते थे,

लेकर आते जब मोटी तनख्वाह,

नौकरी की बात तब हम जाने थे ।

 

आजादी बाद हुआ था ऐसा,

मजा किए थे लोग सब,

हुई कड़ाई नब्बे के बाद ,

मस्ती में पड़ी खड़ास रे ।

 

प्रतिभाशाली लोग आ गए,

मेहनत ये करते बहुत,

विध्न बने है,हमारे सुख के,

भाग्य हुआ विपरीत रे ।

 

राज्यों में होता है ऐसे,

जाते दफ़्तर एक दिन,

टूर बनाकर घूमा करते,

मजा मारते तीस दिन ।

 

हुई कड़ाई वहाँ भी अब,पर,

जाकर दफ़्तर में सोते हैं,

रौब दिखाते पत्नी पर,

कि कर आया मैं काम रे ।

Views: 716

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by kanta roy on October 8, 2015 at 8:59am
काश दो दिन दफ़्तर लगता ,
होती छुट्टी पाँच दिन,
खाते खेलते,सोते घर में
मौज मनाते पाँच दिन ।
---- वाह !!!! क्या अनुपम ये सपना देखा है आपने आदरणीया अखिलेश जी । सपना कब अपना हुआ है । बधाई स्वीकार करें इस मासूम से सपने के लिए जो हम सब ही चुपके चुपके देख लिया करते है ।
Comment by akhilesh mishra on April 30, 2013 at 11:11am

बिल्कुल सही ,आदरड़िया तनेजा मैडम ।प्रस्तुति पसंद आई ,इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ।

Comment by Usha Taneja on April 29, 2013 at 5:12pm

वाह रे "सरकारी नौकर(ई)"! कितना मज़ा आता था तब!

तभी तो प्राईवेट सेक्टर अधिक तरक्की कर गया है|

क्यों?

बहुत बढ़िया प्रस्तुति! 

Comment by akhilesh mishra on April 29, 2013 at 11:30am

प्रतिक्रिया के लिए सभी को धन्यवाद ।सरकारी नौकरी में भी बहुत लोग मेहनत करते हैं ।आज के समय में स्थिति बहुत सुधर गई है ।लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि इस देश में कई बढ़िया संसथाएं इसीलिए डूब गई क्योंकि लोग काम नहीं करते थे ।सरकारी नौकरी मिल जाने के बाद बहुत से लोग समझ लेते हैं कि वे अब सरकारी संपत्ति के मालिक हो गए हैं ।ऐसे ही लोगों के लिए यह कविता लिखी गई है ।यह हास्य व्यंग्य है,बहुत गंभीरता से न लें ।साहित्य का मतलब आदमी को हल्का करना भी होता है ।जो सत्य है वह लिखना चाहिए चाहे वह कितना भी कड़वा क्यों न हो और यदि पूर्वजों ने कुछ गलती की है तो उसे भी सामने लाना चाहिए । 

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 28, 2013 at 9:23am

सरकारी नौकरी और लापरवाह सेवको पर लिखी सुन्दर रचना आदरणीय अखिलेश जी बधाई स्वीकारें.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 27, 2013 at 7:45pm

श्री अखिलेश मिश्रा जी, आपकी संभवतः मै यह पहली रचना पढ़ रहा हूँ | प्रस्तुति के लिए बधाई किन्तु मै श्री शरदिंदु मुकर्जी 

के विचारो से सहमत हूँ | व्यंग रचना के माध्यम से बुराई पर कटाक्ष हो तो बेहतर है | एक लेखक का प्रथम दायित्व साहित्य 

के माध्यम से समाज को धनाम्त्मक विचार देने चाहिए | फिर भी आपके प्रयास और अंतिम पंक्तियों में कुछ सच्चाई बया.

करने के लिए बधाई  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on April 27, 2013 at 12:27pm

भाई अखिलेश जी, शायद आपका उद्देश्य था हास्य-व्यंग्य रचना भेजना. लेकिन .....लेकिन इस प्रक्रिया में आप रचनाकार के मूल दायित्व को ही भूल गये. छोटे-बड़े, प्रतिष्ठित, नये नवेले, असाधारण, साधारण हर तरह के रचनाकार का पहला कर्तव्य है समाज के प्रति अपने कर्तव्य को निभाना....और यह कर्तव्य है अपनी रचना के माध्यम से समाज के मानस में सौंदर्य, ओज, शांति और सुख की प्रतीति भर देना. वर्तमान रचना में आपने केवल ऋणात्मक मनोवृत्ति ही चित्रित किया है.....अपने अति उत्साह (??) में आप अपने पूर्वजों को भी नहीं बख्शते......स्वयम सोचिये क्या यह एक कवि के लिये उचित है? आपके प्रयास के लिये हमेशा मेरी तरफ़ से साधुवाद लेकिन अपने प्रयासों को आशा की किरणों से नहलाएँ तो मज़ा आ जाएगा. सादर.

Comment by coontee mukerji on April 27, 2013 at 11:38am

अगर सरकारी नौक्ररी ऐसी होगी तो देश को रसातल में जाने का क्षणमात्र भी नहीं लगेगा........लेकिन भैया  ..ऐसे भी लोग हैं जो बड़ी निष्ठा और इमानदारी से सरकारी नौकरी करते हैं.....उनके पत्नियों का भी योगदान होती हैं.....जो महिनों  out door कार्यरत पति की अनुपस्थिति  में पूरा परिवार बम्भालती हैं.  सादर / कुंती .

Comment by akhilesh mishra on April 26, 2013 at 3:57pm

कुशवाहा जी धन्यवाद ,प्रतिक्रिया के लिए ।

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 26, 2013 at 3:33pm

हाँ बाबू ,

ये सरकारी नौकरी है 

मिले तब न 

बधाई 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Shyam Narain Verma commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post करते तभी तुरंग से, आज गधे भी होड़
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर और उम्दा प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
14 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"आदाब।‌ बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब तेजवीर सिंह साहिब।"
Monday
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"हार्दिक बधाई आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी।"
Monday
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"हार्दिक आभार आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी। आपकी सार गर्भित टिप्पणी मेरे लेखन को उत्साहित करती…"
Monday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"नमस्कार। अधूरे ख़्वाब को एक अहम कोण से लेते हुए समय-चक्र की विडम्बना पिरोती 'टॉफी से सिगरेट तक…"
Sep 29
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"काल चक्र - लघुकथा -  "आइये रमेश बाबू, आज कैसे हमारी दुकान का रास्ता भूल गये? बचपन में तो…"
Sep 29
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"ख़्वाबों के मुकाम (लघुकथा) : "क्यूॅं री सम्मो, तू झाड़ू लगाने में इतना टाइम क्यों लगा देती है?…"
Sep 29
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"स्वागतम"
Sep 29
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"//5वें शेर — हुक्म भी था और इल्तिजा भी थी — इसमें 2122 के बजाय आपने 21222 कर दिया है या…"
Sep 28
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"आदरणीय संजय शुक्ला जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल है आपकी। इस हेतु बधाई स्वीकार करे। एक शंका है मेरी —…"
Sep 28
Nilesh Shevgaonkar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"धन्यवाद आ. चेतन जी"
Sep 28
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"आदरणीय ग़ज़ल पर बधाई स्वीकारें गुणीजनों की इस्लाह से और बेहतर हो जायेगी"
Sep 28

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service