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गजल : कितनी भला कटुता लिखें

भर्त्सना के भाव भर, कितनी भला कटुता लिखें?

नर पिशाचों के लिए, हो काल वो रचना लिखें।  

 

नारियों का मान मर्दन, कर रहे जो का-पुरुष,

न्याय पृष्ठों पर उन्हें, ज़िंदा नहीं मुर्दा लिखें।

 

रौंदते मासूमियत, लक़दक़ मुखौटे ओढ़कर,

अक्स हर दीवार पर, कालिख पुता उनका लिखें।

 

पशु कहें, किन्नर कहें, या दुष्ट दानव घृष्टतम,

फर्क उनको क्या भला, जो नाम, जो ओहदा लिखें।

 

पापियों के बोझ से, फटती नहीं अब ये धरा

खोद कब्रें, कर दफन, कोरा कफन टुकड़ा लिखें।

 

हों बहिष्कृत परिजनों से, और धिक्कृत हर गली,

डूब जिसमें खुद मरें वो, शर्म का दरिया लिखें।

 

कब तलक घिसते रहेंगे, रक्त भरकर लेखनी,

हों न वर्धित वंश, उनके नाश को न्यौता लिखें।

 

मौलिक व अप्रकाशित

 

कल्पना रामानी

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Comment by बृजेश नीरज on April 26, 2013 at 3:20pm

आदरणीय कल्पना जी बहुत ही सुन्दर! इसी जोश, इसी आहवाहना की आज नारियों को आवश्यकता है। आपको बहुत साधुवाद!

Comment by राजेश 'मृदु' on April 26, 2013 at 3:09pm

कल्‍पना दी, हमने तो आपके शानदार नवगीत पढ़े, बेहतरीन कुंडलियां पढ़ी और अब ये शानदार गज़ल, आपने तो मंत्रमुग्‍ध कर दिया, सादर

Comment by कल्पना रामानी on April 26, 2013 at 1:42pm

आदरणीय श्याम नारायण जी, बहुत बहुत धन्यवाद....

Comment by कल्पना रामानी on April 26, 2013 at 1:41pm

आदरणीय विजय जी, रचना को मन से सराहने के लिए हृदय से आभार....

Comment by Shyam Narain Verma on April 26, 2013 at 12:44pm

BAHOT KHOOB..................

Comment by vijay nikore on April 26, 2013 at 11:31am

आदरणीया कल्पना जी:


हर शेर बेहद ख़ूबसूरत है ! हर ख्याल लाजवाब है ......!


इस नज़्म की तारीफ़ के लिए उचित अल्फाज़ की कमी महसूस हो रही है !

 

विजय निकोर

Comment by कल्पना रामानी on April 26, 2013 at 9:18am

समस्त आदरणीय विद्वानों की चर्चा से मुझे काफी सीख मिल चुकी है, मुझे गजल की बारीकियाँ, परिभाषाएँ और उर्दू के शब्दों का ज्ञान बिलकुल नहीं है। सिर्फ हिन्दी के छंदों के आधार पर उदाहरण देख पढ़कर ही लिखने की कोशिश करती हूँ।दो महीने पहले से यहीं आकर गजल सीखने और लिखने का अभ्यास कर रही हूँ, अब लगता है सही स्थान पर पहुँच गई हूँ।   आप सबके सहयोग के लिए हार्दिक आभार, आगे भी मार्गदर्शन मिलता रहे इसी उम्मीद के साथ....कल्पना  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 26, 2013 at 12:36am

फिलहाल आदरणीया कल्पना जी की प्रस्तुति को साफ़-सुथरा रहने दें हम.. .   :-)))

Comment by वीनस केसरी on April 26, 2013 at 12:19am

सौरभ जी,
शुक्रिया
मेरा भी यही आशय है की ग़ज़ल को ग़ज़ल रहने दिया जाए,,,,
हिन्दी ग़ज़ल, उर्दू ग़ज़ल विशेषण का प्रयोग उसके पारिभाषिक मानको से इतर करने पर तो स्थिति भयावह हो जायेगी

// हम प्रस्तुति की आत्मा देखें तो उचित होगा. //
सहमत हूँ
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 26, 2013 at 12:04am

अनावश्यक शाब्दिकता को छोड़ हम प्रस्तुति की आत्मा देखें तो उचित होगा.

शब्द मात्र को नहीं शब्दों के प्रयोग की सार्थकता प्रकृष्टता को देखें

हम अब भी ग़ज़ल को ग़ज़ल ही कहते हैं. लेकिन मेहरबां हम हिन्दी वर्णमाला के आगे नहीं जाना चाहते.  जो गिर सकता है उस गिराने का सुख हम लेना चाहेंगे. चाहे नियम जो हो, जैसे हो. शब्द नहीं बिगड़ने चाहिये. बस

शुभेच्छाएँ

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