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हर तरफ खौफनाक सन्नाटा

कहीं कोई आवाज नहीं

हालांकि दर्द हदों को छू गया।

 

जिंदगी

दरकने लगी है

तप रही है जमीन,

पानी की बूंद

गायब हो जाती है

गिरते ही;

सिर झुकाए लेटी

भूरी घास की आंख में

प्यास छलकती है।

 

ओठों पर जमी

पपड़ियां रोकती हैं

शब्दों को बढ़ने से

हवा घूम फिर कर

लौट आती है वहीं

जर्जर किवाड़

हिलता है बस।

 

छप्पर के नीचे

सिर झुकाए बैठा

कुत्ता

रखवाली कर रहा है

जरूरतों की।

 

भूख

अहसास बन

पूरे मन पर छा गयी;

चूल्हों ने बंद कर दिया

शिकायत करना।

 

शरीर में जगह जगह

उभर आई हैं दरारें

जिन्हें चीथड़ों से भरने की कोशिश

नाकाम होने लगी हैं।

 

आंख में कोई सपना तो नहीं

लेकिन देखती हैं उस तरफ

जो सड़क संसद को जाती है

वह सड़क बंद है।

               - बृजेश नीरज

 

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Comment

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 14, 2013 at 5:00pm

आंख में कोई सपना तो नहीं

लेकिन देखती हैं उस तरफ

जो सड़क संसद को जाती है

वह सड़क बंद है।

 आदरणीय ब्रजेश जी 

सादर 

बधाई.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 14, 2013 at 4:03pm

आंख में कोई सपना तो नहीं

लेकिन देखती हैं उस तरफ

जो सड़क संसद को जाती है

वह सड़क बंद है।...................................एक अंधा बहरा रास्ता बंद ही तो कहलाता है 

गरीब की बेबसी दर्द की इन्तेहाँ की मार्मिक अभिव्यक्ति... और अंत अद्भुद 

बहुत बहुत बधाई इस सशक्त अभिव्यक्ति के लिए आ० बृजेश जी 

Comment by बृजेश नीरज on April 14, 2013 at 3:20pm

आदरणीय रक्ताले साहब आपका आभार! आपने जो पंक्तियां लिखी हैं उन्होंने वातावरण में जान डाल दी। सादर!

Comment by बृजेश नीरज on April 14, 2013 at 2:50pm

राम भाई जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद!

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 14, 2013 at 2:26pm

आंख में कोई सपना तो नहीं

लेकिन देखती हैं उस तरफ

जो सड़क संसद को जाती है

वह सड़क बंद है।.......................बहुत बढ़िया. तुम्हारा घर तुमको मुबारक, हमारी नीव क्यों हिला रहे हो.

सुन्दर रचना आदरणीय बृजेश नीरज जी. बधाई स्वीकारें.

Comment by ram shiromani pathak on April 14, 2013 at 1:34pm

ओठों पर जमी

पपड़ियां रोकती हैं

शब्दों को बढ़ने से/// मार्मिक

आदरणीय बृजेश जी,बहुत सुन्दर,बधाई स्वीकार कीजिये सादर 

Comment by बृजेश नीरज on April 14, 2013 at 10:23am

वंदना जी इस जनतंत्र में हमारी सारी जरूरत, सारी उम्मीद टिकी होती है संसद पर। आमजन का भविष्य संसद के हाथों में है लेकिन दुखद यह है कि संसद को इस आम आदमी की कोई फिक्र नहीं है। आशा है आप मेरा आशय समझ गयी होंगी।
आपका बहुत धन्यवाद!
सादर!

Comment by बृजेश नीरज on April 14, 2013 at 10:18am

आदरेया कुंती जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद! आपके उत्साहवर्धन ने नया जोश पैदा किया। मेरी लेखनी का नहीं यह आप लोगों का प्रेम और ओ बी ओ के मार्गदर्शन का परिणाम है जो कुछ ऐसा लिख पाया जिसे लोगों ने पसन्द किया।
नतमस्तक तो मैं हूं आपके समक्ष जो फ्रेंच भाषी होने के बावजूद आप हिन्दी से इतना प्रेम करती हैं।
सादर!

Comment by बृजेश नीरज on April 14, 2013 at 10:13am

आदरणीय विजय जी आपका आभार! आपकी टिप्पणी मेरे लिए सदैव ऊर्जा का स्रोत होती है।

Comment by Vindu Babu on April 14, 2013 at 10:11am
पूरी कविता बहुत ही प्रभावपूर्ण लगी पर अन्त में 'संसद' को जाती है... मतलब?कृपया बताएं आदरणीय महोदय।
बहुत सुन्दर भावाभ्यक्ति,सादर बधाई स्वीकारें।

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