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बस यूँ ही.....काश ये हलके होते.....

बस यूँ ही.....काश ये हलके होते.....

 

बचपन के सपने

खुली आँखों के सपने

खुला आकाश 

आज़ाद पंछी

बहुत से उड़ गए

कुछ सफ़र पूरा कर

वापस पलकों पर आ गए 

 

और अब...

बंद आँखों में नींद कंहा

नींद कभी आई तो

सपने कंहा

कभी आये तो

उड़े कंहा,आकाश कंहा

 

जरूरतों के पिंजरे में कैद 

कभी निकले तो

ज़रा फडफडाये

पर मजबूरियों के पत्थर 

वक्त के हाथों में हमेशा दिखे 

और निशाना भी पक्का 

उड़ने से पहले ही लगे

 

पंछी फिर फडफडाये,गिरे

आज भी उन पत्थरों के नीचे दबे हैं 

काश , ये पत्थर जरा हलके होते तो

शायद ,छटपटाते ,हिलते हिलाते 

नीचे से निकल आते अधमरे से 

मगर सपने तो पंछी थे 

ये पत्थर तो पत्थर ही हैं

काश ये जरा हलके होते ..........पवन अम्बा ...

"मौलिक व अप्रकाशित"

 

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Comment by ram shiromani pathak on March 13, 2013 at 9:25pm

जरूरतों के पिंजरे में कैद 

कभी निकले तो

ज़रा फडफडाये

पर मजबूरियों के पत्थर 

वक्त के हाथों में हमेशा दिखे 

और निशाना भी पक्का 

उड़ने से पहले ही लगे!!!!बहोत खूब आदरणीय !हार्दिक  बधाई 

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