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तुम्हारे मन का चोर दरवाज़ा

तुम्हारे मन का चोर दरवाज़ा
जिसके पार -
लहराती हैं
बदहवास हवाएं
गूंजते जहाँ-
अतीत के गीत
सायास
बज उठती है
अकुलाई सुधियों
की रागिनी
अन्तस् वीणा को
छेड़ ज्यों
विहंसती हो कोई
कामिनी
अनजान हो तुम
कि तुम्हारे संग
है तुम्हारी छाया
सहेज रही तुम्हारे
बिखरे से जीवन
की माया
वह स्त्री जो
बुन रही सन्नाटे
वह अनुगामिनी
तुम्हारी जीवन संगिनी -
युगों के अंतराल
जिसने
प्रतीक्षा में काटे
जो चुन रही
तुम्हारे टूटे हुए
सपनो की किरचें
भटकती जो साथ साथ
छलना- कस्तूरी
के पीछे
वह स्त्री -
समर्पण उसका धर्म
समर्पण उसका संस्कार
जो अपना सब कुछ
सौंप कर भी
सिखा न सकी
तुमको
समर्पण के मायने
बदरंग होकर
दरकने लगे
सब आईने
उसे पाकर भी
डोलता है
तुम्हारा ईमान
तुम्हारी पुरुष प्रकृति
गढती है
सौन्दर्य के
नये नये आयाम
कल्पनाओं के
देश में
अतीत में, वर्तमान में
भविष्य के
परिवेश में
नित नये आकर्षण
पलते हैं आँखों में
अनजान क्षितिज पर -
किरणों के पांखों में
न जाने कौन सा
अजनबी संसार...
दरवाजे के उस पार ?!!
जीती है स्त्री भी
वही मरीचिका
प्रतिपल, अनवरत
तुम्हारे मन का चोर दरवाज़ा -
जिसे खोल न सकी वह अब तक!!!

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by mrs manjari pandey on March 8, 2013 at 10:15pm

विनीता शुक्ल जी अच्छी रचना। बधाई।

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