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कुम्हार

 

रूप दे दो

इधर उधर बिखरी हुई है

ये मिट्टी

रौंद रहे हैं लोग

रंग काला पड़ने लगा

कुछ कीड़े भी पनपने लगे

 

इसे कोई रूप दे दो

कुम्हार

कि फिर निखर आए

यह एक नए रूप में।

 ----------------------

तारे

 

चाहता हूं मैं भी

तोड़ लाना आसमान के तारे

तुम्हारे लिए

लेकिन क्या करूं

मेरा कद है बौना

हाथ छोटे।

           - बृजेश नीरज

 

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Comment by Ashok Kumar Raktale on March 8, 2013 at 8:32am

उन्नत भाव प्रस्तुत करती सुन्दर क्षनिकाएं. सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय ब्रजेश नीरज जी.

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on March 8, 2013 at 4:45am

सुन्दर सन्देश से परिपूर्ण क्षणिकाएं !

Comment by बृजेश नीरज on March 7, 2013 at 11:24pm

मोहन जी आपका आभार!

Comment by मोहन बेगोवाल on March 7, 2013 at 11:02pm

बहुत ही सुंदर छोटी नज्में बहुत अर्थ भरपूर हें

Comment by बृजेश नीरज on March 7, 2013 at 10:37pm

आदरणीया वेदिका जी आपका आभार!

Comment by वेदिका on March 7, 2013 at 10:34pm

आदरणीय बृजेश कुमार नीरज जी!
सुदर क्षणिकाएं
शुभकामनायें
सादर वेदिका

Comment by बृजेश नीरज on March 7, 2013 at 10:10pm

आशीष सलिल जी आपका आभार!

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on March 7, 2013 at 9:45pm

सुन्दर... अति सुन्दर... बृजेश भाई |

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