For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

शाहराह-ए-ज़िन्दगी पे अँधेरा ज़रूर था,
पर उस के पार दिन का भी डेरा ज़रूर था !

ये मैं ही था जो तीरगी में मुब्तिला रहा,
उसने तो रौशनी को बिखेरा ज़रूर था !

जेहन-ओ-ख्याल में बसा था और ही कोई,
हाँ, ले रहा वो सातवाँ फेरा ज़रूर था !

आंसू छुपा रहा था जो चश्मे कि आड़ में,
बिछुड़ा हुआ साथी कोई, मेरा ज़रूर था !

मीलों तलक तवील था उस घर में फासला
वो घर नहीं था, रैन बसेरा ज़रूर था !

जो कौड़ियों के मोल लूट ले गया खिज़ां
वो मौसम-ए-बहार, लुटेरा ज़रूर था !

जिस घर की ईंट ईंट से गायब था मेरा नाम
उस घर की नींव में लहू मेरा ज़रूर था !



( शाहराह = मार्ग, तीरगी = अँधेरा, मुब्तिला = संलिप्त, तवील = विशाल, खिज़ां = पतझड़ )

Views: 601

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 17, 2017 at 11:47pm

जेहन-ओ-ख्याल में बसा था और ही कोई,
हाँ, ले रहा वो सातवाँ फेरा ज़रूर था !

आंसू छुपा रहा था जो चश्मे कि आड़ में,
बिछुड़ा हुआ साथी कोई, मेरा ज़रूर था !

मीलों तलक तवील था उस घर में फासला
वो घर नहीं था, रैन बसेरा ज़रूर था ! बहुत खूब |

Comment by Naval Kishor Soni on August 28, 2012 at 1:04pm

दिल को छू गयी आपकी ये ग़ज़ल..badhai.

Comment by fauzan on May 15, 2010 at 1:11pm
जिस घर की ईंट ईंट से गायब था मेरा नाम
उस घर की नींव में लहू मेरा ज़रूर था !
Waah janab Waah
Comment by विवेक मिश्र on May 10, 2010 at 10:56am
बात बात में ही गहरी बात कह डालते हैं आप... दिल को छू गयी आपकी ये ग़ज़ल..
Comment by Admin on May 8, 2010 at 5:31pm
आपने लिखा........

भाई सर्वश्री बागी जी, तिवारी जी, ADMN जी एवं रवि (गुरु) जी,

जिन दो रचनायों को आपने और बाकी सब मित्रों ने इतना मान दिया है, वो तकरीबन एक चौथाई सदी पहले जवानी, कालेज और बेकारी के दौर के कुछ अधकचरे ख्यालात के सिवाए कुछ नहीं है ! आप सब प्रतिभावान लोगों के बीच आया तो कुछ पुराने ज़ख्म फिर से हरे हुए - कुछ भूले बिसरे बोल दोबारा नमूदार हुए ! ज़ेहन की एक ख़ाक-अलूदा अलमारी में से कुछ पुराने पन्ने मिले ! उन पन्नो पर कुछ बचकाना और कुछ मर्दाना तुकबन्दियाँ उभर आयीं, बड़ी हिम्मत कर के मगर डर डर के मैं आपकी महफ़िल में हाज़िर हुआ ! आपने हौसला अफजाई की तो लगा कि बन्दर भले बूढा भी क्यों ना हो जाये, मगर गुलाटी मरना नहीं भूला करता ! मैं आप सब साथियों का ता-उम्र ममनून रहूँगा कि आप सब की ज़र्रा-नवाज़ी ने मेरे अन्दर के सो चुके शायर को आज 2 दशक बाद फिर से झिंझोड़ कर फिर से जगा दिया !

मैं पूरी कोशिश करूंगा की उस कलंदरी दौर में कही हुई तकरीबन एक सौ गजलें जल्द-अज-जल्द आप सब के हजूर में बतौर नजराना पेश करूँ !


आदरणीय योगराज प्रभाकर जी, आप ने जो लिखा है उसे पढ़ ( बन्दर बुढ़ा........) बहुत हसी आया, पर हसी हसी मे आपने बहुत कुछ कह दिया है, आज मुझे लग रहा है कि जिस उद्देश्य और सोच के साथ यह साइट बनाया गया था, यह साइट उस उद्देश्य को पूरा कर रहा है,
Comment by asha pandey ojha on May 8, 2010 at 4:24pm
जेहन-ओ-ख्याल में बसा था और ही कोई,
हाँ, ले रहा वो सातवाँ फेरा ज़रूर था !

आंसू छुपा रहा था जो चश्मे कि आड़ में,
बिछुड़ा हुआ साथी कोई, मेरा ज़रूर था !

मीलों तलक तवील था उस घर में फासला
वो घर नहीं था, रैन बसेरा ज़रूर था !

जो कौड़ियों के मोल लूट ले गया खिज़ां
वो मौसम-ए-बहार, लुटेरा ज़रूर था !
Superb ..Splendid ..mirecle ....fantastic..!

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on May 6, 2010 at 4:06pm
भाई रवि (गुरु) जी, आपके हुक्म कि तामील कर दी गयी है, लेकिन अगर तस्वीर देखने के बाद निराशा हो तो दोष मुझे मत देना !
Comment by Rash Bihari Ravi on May 6, 2010 at 3:45pm
ek anurodh hain aap se aap profile me tasvir lagade sir

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on May 6, 2010 at 3:37pm
भाई सर्वश्री बागी जी, तिवारी जी, ADMN जी एवं रवि (गुरु) जी,

जिन दो रचनायों को आपने और बाकी सब मित्रों ने इतना मान दिया है, वो तकरीबन एक चौथाई सदी पहले जवानी, कालेज और बेकारी के दौर के कुछ अधकचरे ख्यालात के सिवाए कुछ नहीं है ! आप सब प्रतिभावान लोगों के बीच आया तो कुछ पुराने ज़ख्म फिर से हरे हुए - कुछ भूले बिसरे बोल दोबारा नमूदार हुए ! ज़ेहन की एक ख़ाक-अलूदा अलमारी में से कुछ पुराने पन्ने मिले ! उन पन्नो पर कुछ बचकाना और कुछ मर्दाना तुकबन्दियाँ उभर आयीं, बड़ी हिम्मत कर के मगर डर डर के मैं आपकी महफ़िल में हाज़िर हुआ ! आपने हौसला अफजाई की तो लगा कि बन्दर भले बूढा भी क्यों ना हो जाये, मगर गुलाटी मरना नहीं भूला करता ! मैं आप सब साथियों का ता-उम्र ममनून रहूँगा कि आप सब की ज़र्रा-नवाज़ी ने मेरे अन्दर के सो चुके शायर को आज 2 दशक बाद फिर से झिंझोड़ कर फिर से जगा दिया !

मैं पूरी कोशिश करूंगा की उस कलंदरी दौर में कही हुई तकरीबन एक सौ गजलें जल्द-अज-जल्द आप सब के हजूर में बतौर नजराना पेश करूँ !

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on May 6, 2010 at 3:33pm
आदरणीय गुरु जी,
मैं और गुरु ? और वो भी आप जैसे "गुरु" का ? बच्चे कि जान लोगे क्या? वैसे आप मेरे साथी है, मित्र हैं, भाई हैं - इस नाते आप को हर चीज़ का अधिकार है ! आधी रात को भी आवाज़ देना ये "पंजाबी पुत्तर" कभी पीठ नहीं दिखाएगा !

सदा खुश रहिये
योगराज प्रभाकर

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अखिलेश कृष्ण भाईजी, आपने प्रदत्त चित्र के मर्म को समझा और तदनुरूप आपने भाव को शाब्दिक भी…"
4 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"  सरसी छंद  : हार हताशा छुपा रहे हैं, मोर   मचाते  शोर । व्यर्थ पीटते…"
9 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"सरसी छंद +++++++++ रोहिंग्या औ बांग्ला देशी, बदल रहे परिवेश। शत्रु बोध यदि नहीं हुआ तो, पछताएगा…"
10 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"जय-जय, जय हो "
yesterday
Admin replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"स्वागतम"
yesterday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-186

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 186 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का मिसरा आज के दौर के…See More
Dec 14
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-181
"  क्या खोया क्या पाया हमने बीता  वर्ष  सहेजा  हमने ! बस इक चहरा खोया हमने चहरा…"
Dec 14
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-181
"सप्रेम वंदेमातरम, आदरणीय  !"
Dec 14
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

Re'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
Dec 13
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-181
"स्वागतम"
Dec 13

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आदरणीय रवि भाईजी, आपके सचेत करने से एक बात् आवश्य हुई, मैं ’किंकर्तव्यविमूढ़’ शब्द के…"
Dec 12
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-181

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
Dec 10

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service