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कैसा है गणतंत्र  
 
घर घर जाकर देख ले, महिला है परतंत्र, 
गणतंत्र हम किसे कहे, हम पर हावी तंत्र 
 
दफ्तर जाकर देख ले, कैसा है गणतंत्र,
अफसर करे न चाकरी, हावी होता तंत्र 
 
खेल जगत में देख ले, कैसा हावी तंत्र,
पढ़ता सट्टेबाज ही, टीम विजय का मन्त्र 
 
इस अदभुत गणतंत्र में, संसद तक षडयंत्र,
संसद तो चलती नहीं, बाहर पढ़ते मन्त्र ।
 
अच्छी शिक्षा के लिए, भटक रहे है छात्र,
निर्धन को प्रवेश नहीं, हो कितना ही पात्र ।
 
इन्द्रप्रस्थ में इन दिनों, धृतराष्ट्र का राज,
दुर्योधन की आँख में, रही न कोई लाज ।
 
मत के सदुपयोग से, आ जावे जनतंत्र,
हम सभी संकल्प करे, हो सच्चा गणतंत्र।
 
गणतंत्र के अवसर पर,भारत तुझे सलाम,
आदर्श बनकर जगमें, बन शांति की लगाम |
 

-लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला 

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 31, 2013 at 11:16am

रचना को सराहने आखिर के दोहों में सुधार के राय देने हेतु हार्दिक आभार आद राजेश कुमारी जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 30, 2013 at 7:11pm
मत का सदुपयोग करे, तब आवे जनतंत्र,-----सदुपयोग में सद +उपयोग =7 मात्रा होंगी , जो आपने 6 गिनी हैं अतः 14 मात्राएँ हो रही हैं 
हम सभी संकल्प करे, तब सच्चा गणतंत्र-----
गणतंत्र के अवसर पर,भारत माँ को नमन,----ऊपर से सभी दोहों के सम  चरणों का अंत आप सही अर्थात गुरु लघु से करते आयें हैं                   इस दोहे में क्या हुआ ?----नमन में न +मन =लघु गुरु हो गया 
आदर्श बनकर जग में,बन शांति का अगुवन। ----अगुवन में दीर्घ दीर्घ हो गया 
बहुत अच्छे सामयिक दोहे हैं जरा से और प्रयास से निखर सकते हैं ,बहुत बहुत बधाई आदरणीय लक्ष्मण जी 
 
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 30, 2013 at 1:09pm

दोहे की संरचना पसंद करने के लिए हार्दिक धन्यवाद श्री अरुण शर्मा अनंत जी, आपकी सराहना से मेरा इन दोहों की संरचना का उद्धेश्य सार्थक हुआ, आपका हार्दिक आभार 

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 30, 2013 at 11:49am

आदरणीय सर प्रणाम, आपकी अच्छी सोंच का सृजन हैं ये दोहे, वर्तमान में व्याप्त बुराइयों को हम किस तरह से सुधार करने की सीख देते दोहों हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 28, 2013 at 2:27pm

दोहे पसंद कर होंसला अफजाई हेतु आपका हार्दिक आभार श्री अतुल चन्द्र अवस्थी जी

Comment by Atul Chandra Awsathi *अतुल* on January 27, 2013 at 12:17pm
इस अदभुत गणतंत्र में, संसद तक षडयंत्र,
संसद तो चलती नहीं, बाहर पढ़ते मन्त्र ।
 
अच्छी शिक्षा के लिए, भटक रहे है छात्र,
निर्धन को प्रवेश नहीं, हो कितना ही पात्र ।
 
इन्द्रप्रस्थ में इन दिनों, धृतराष्ट्र का राज,
दुर्योधन की आँख में, रही न कोई लाज ।
 आदरणीय लक्ष्मन प्रसाद जी शब्द-शब्द मन को छू गए। वर्तमान व्यवस्था और विसंगति का एक कड़वा सच आपने बयां किया है बहुत बधाई.

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