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ग़ज़ल (मुझको बनाने वाले ने खंज़र बना दिया)

पैबस्त जिस्म में हूँ कि दिल में लगा हूँ मैं 
मुझको बनाने वाले ने खंजर बना दिया |

अफ़सोस किसी बात का होता नहीं मुझे 
पत्थर की तरह मुझको बंजर बना दिया |

चूसा है लहू इस क़दर दुनिया ने खुद अपना 
न जाँ बची न गोश्त, बस पंजर बना दिया |

हक औ' सिला के नाम पर सब इस कदर लड़ें
एक दुसरे को इनने तो कंजर बना दिया |

निकला 'कोई नहीं' मगर सपना हैं देखतें 
गीली जगह पे स्याह एक मंजर बना दिया ||

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Priya Ranjan on January 22, 2013 at 6:08pm

धन्यवाद 

Comment by ram shiromani pathak on January 22, 2013 at 5:32pm

 सुन्दर रचना आदरणीय !!!

कृपया ध्यान दे...

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"//आप जैसा चाहिए..//?... मैं समझा नहीं आदरणीय। "
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"रचना सार्वजनिक होने के बाद शायर की कहाँ रही.. आपकी हो गयी...आप जैसा चाहिए..सादर "
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